Thursday, March 17, 2011

झारखंड की धुंधली तस्वीर

यह तो होना ही था जिन 34वें राष्ट्रीय खेलों के सफल आयोजन ने देश-दुनिया में झारखंड की धुंधली तस्वीर पर स्वच्छ बौछार डालते हुए थोड़ा चमकाया, उन्हीं राष्ट्रीय खेलों की तैयारी की पृष्ठभूमि यह भी उजागर करेगी कि आयोजकों ने कैसे-कैसे खेल किए। इस संदर्भ में निगरानी ब्यूरो द्वारा डाले जा रहे छापे सच्चे निष्कर्ष तक पहुंचे तो यह राज खुलने में देर न लगेगी कि कल तक फर्श पर पड़े लोग आज अर्श पर कैसे नजर आ रहे हैं। हालांकि ऐसे तत्व छोटी मछलियां हैं, जबकि इनके पीछे शातिर दिमाग बड़े मगरमच्छ भी हैं, जिनके ताल्लुकात राजनीतिक नेताओं और ऊंचे अधिकारियों से भी हैं। पूरा मामला दिल्ली में हाल ही संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों की तर्ज पर डील हुआ। 34वें राष्ट्रीय खेलों के बहाने करोड़ों की लूट और बंदरबांट की कहानी सबसे पहले राज्य के प्रधान महालेखाकार की टीम ने साल भर पहले ही शासन को सौंप दी थी, जिस पर धीरे-धीरे मंथन चलता रहा। वह मंथन अंजाम तक पहुंचता, इसके पहले ही निगरानी जांच की सिफारिश हो गई और लगे हाथ आयोजन का समय भी सामने आ गया। यही वह कारण था, जिससे बात दबी-धुआंती रही। अब जबकि घोटालेबाजों पर निगरानी छापों का दौर शुरू हो गया है तो असलियत सामने आने की उम्मीद बंधी है, बशर्ते बिना प्रभावित हुए और बिना किसी का पक्ष लिए जांच आगे बढ़ायी जाय और अंजाम तक पहुंचाया जाय। चूंकि राष्ट्रीय खेलों का आयोजन एक राष्ट्रीय मुद्दा था और झारखंड के लिए स्वर्णिम अवसर भी, इसलिए बीच में निगरानी ने चुप्पी साध अच्छा ही किया। लेकिन जैसा कि इस राज्य में होता रहा है और निगरानी एकदम स्वतंत्र एजेंसी भी नहीं है, यदि दबाव और प्रभाव की राजनीति चली तो जांच लंबी कर दी जा सकती है या अनुसंधान में मेरा आदमी-तेरा आदमी का भी पेंच पैदा हो सकता है। जितने व्यापक पैमाने पर इस आयोजन के नाम घोटाले हुए हैं, वे रुपए जनता की गाढ़ी कमाई के थे, जिसे कुछ लोगों ने घर की मलाई समझ चट कर लिया। आयोजन की भव्यता के कारण जो नेकनामी राज्य को मिली है, जांच के अंजाम तक पहुंचने पर उसमें चार चांद ही लगेंगे क्योंकि तब यह साबित हो सकेगा कि अच्छे को अच्छा कहने और बुरे को बुरा कहने के अलावा दंडित करने में भी झारखंड पीछे नहीं रहता।

Tuesday, March 8, 2011

आरक्षण की मांग

अनुचित तरीका जाट समुदाय के नेताओं की केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण की मांग के पीछे कुछ उपयुक्त आधार हो सकते हैं, लेकिन वे अपनी मांगें मनवाने के लिए जिन उपायों का सहारा ले रहे हैं वे सर्वथा अनुचित और अस्वीकार्य हैं। आरक्षण की मांग के लिए रेल ट्रैक बाधित करने का कहीं कोई औचित्य नहीं। रेल यातायात ठप करना एक तरह से समाज को बंधक बनाना और राष्ट्र को क्षति पहुंचाना है। समस्या यह है कि अब किस्म-किस्म के आंदोलनकारी कहीं अधिक आसानी से रेलों को निशाना बनाने लगे हैं। हाल ही में अलग तेलंगाना राज्य की मांग कर रहे लोगों ने जब अपने आंदोलन को गति दी तो उन्होंने सबसे पहले रेल यातायात को ही बाधित किया। इसी तरह नक्सली जब चाहते हैं तब रेल यातायात ठप कर देते हैं। विडंबना यह है कि जबसे ममता बनर्जी रेलमंत्री बनी हैं तब से रेल प्रशासन नक्सलियों के आगे हथियार डालकर खुद ही रेलों का आवागमन रोक देता है। अब तो उन मांगों को लेकर भी रेल यातायात अवरुद्ध किया जाता है जिनका केंद्र सरकार से कोई लेना-देना नहीं होता। हालांकि उच्चतम न्यायालय हर छोटी-बड़ी बात पर रेल यातायात ठप करने की प्रवृत्ति के खिलाफ गहरी नाराजगी जता चुका है और वह रेल ट्रैक बाधित करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई किए जाने के भी निर्देश दे चुका है, लेकिन न तो राज्य सरकारें अपेक्षित गंभीरता का परिचय दे रही हैं और न ही केंद्र सरकार। हरियाणा में दलितों के उत्पीड़न के एक मामले में पुलिस की कार्रवाई से खफा एक वर्ग विशेष के जिन लोगों ने रेल यातायात को निशाना बनाया था उनके खिलाफ कार्रवाई करने के निर्देश राज्य सरकार को दिए गए थे, लेकिन उसने कार्रवाई के नाम पर लीपापोती ही अधिक की। यदि यह सोचा जा रहा है कि रेल मंत्रालय के इस आश्वासन से आंदोलनकारी रेलों को निशाना बनाना छोड़ देंगे कि जिन राज्यों में रेल यातायात बाधित नहीं किया जाएगा उन्हें नई ट्रेनों और परियोजनाओं का लाभ दिया जाएगा तो यह सही नहीं, क्योंकि रेल अथवा सड़क मार्ग बाधित करने की प्रवृत्ति ने एक राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया है। इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब रेल रोकने की प्रवृत्ति के खिलाफ राज्य सरकारें भी सख्ती का परिचय दें और केंद्र सरकार भी। दुर्भाग्य से फिलहाल ऐसा कुछ होता हुआ नजर नहीं आता। जहां राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी केंद्र के सिर डालकर पल्ला झाड़ लेती हैं वहीं केंद्र सरकार चेतने से ही इनकार करती है। यही कारण है कि कई बार आंदोलनकारी कई-कई दिनों तक रेल पटरियों पर कब्जा किए रहते हैं। एक बार फिर ऐसा ही देखने को मिल रहा है। केंद्र सरकार न तो जाट नेताओं की आरक्षण संबंधी मांग पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करने की जरूरत समझ रही है और न ही उनके द्वारा जगह-जगह रेल यातायात ठप किए जाने के मामले पर। जाट नेताओं की आरक्षण की मांग के संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वे पिछले तीन वर्षो से आंदोलनरत हैं और कोई नहीं जानता कि केंद्र सरकार उनकी मांगों पर किस दृष्टि से विचार कर रही है? उसके ऐसे रवैये से तो यही लगता है कि वह समस्या को टालने की ही नीति पर चल रही है। वस्तुस्थिति जो भी हो, जाट नेताओं को यह समझना ही होगा कि वे इस तरह से समाज की सहानुभूति-समर्थन अर्जित नहीं कर सकते।