Tuesday, May 10, 2011

" चेतना" का समय उच्चतम न्यायालय की इस कठोर टिप्पणी के बाद सरकारों को भी चेतना चाहिए और समाज को भी कि सम्मान की कथित रक्षा की खातिर की जाने वाली हत्याएं राष्ट्र के लिए कलंक हैं और इनके लिए जिम्मेदार लोगों को मौत की सजा दी जानी चाहिए। चूंकि खुद उच्चतम न्यायालय ने यह पाया है कि ऑनर किलिंग एक क्रूर, असभ्य और सामंती प्रथा है इसलिए समाज का चेतना आवश्यक है। ऐसी सामाजिक बुराइयां कठोर कानून का निर्माण करने मात्र से दूर होने वाली नहीं हैं। ऑनर किलिंग मामले के एक अभियुक्त को सुनाई गई आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले की प्रति सभी हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल, राज्यों के मुख्य सचिव, गृह सचिव और पुलिस महानिदेशकों को भेजने का निर्देश दिया है, लेकिन आखिर इस निर्णय और उसकी गंभीरता से समाज को कौन अवगत कराएगा? पिछले कुछ समय से ऑनर किलिंग को रोकने के लिए ठोस कानून बनाने की बातें हो रही हैं। तर्क यह दिया जा रहा है कि किसी प्रभावी कानून के अभाव में ऑनर किलिंग के दोषियों को दंडित करने में मुश्किल पेश आ रही है। यह तर्क समझ से परे है, क्योंकि हत्या तो हत्या है-फिर वह चाहे तथाकथित सम्मान की रक्षा के लिए की जाए या फिर अन्य किन्हीं कारणों से। यह भी समझ से परे है कि जब देश के कुछ हिस्सों में इस तरह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं तब फिर प्रभावी कानून बनाने में देरी क्यों हो रही है? ऑनर किलिंग के तहत होने वाली हत्याओं को रोकने के लिए जो कुछ भी संभव है वह तत्काल प्रभाव से किया जाना चाहिए, क्योंकि इस तरह की घटनाएं समाज और राष्ट्र की बदनामी का कारण बन रही हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में प्रति वर्ष एक बड़ी संख्या में प्रेमी जोड़ों अथवा विवाहित युगलों को विवाह संबंधी जातीय अथवा सामाजिक परंपराओं के उल्लंघन के आरोप में मार दिया जाता है। सबसे ज्यादा प्रताडि़त एक ही गोत्र में विवाह करने वाले युगल होते हैं। हालांकि न्यायपालिका विवाह के मामले में गोत्र को महत्व देने के लिए तैयार नहीं, लेकिन ग्रामीण समाज का एक वर्ग गोत्र के उल्लंघन को इतनी बड़ी बुराई मानता है कि विवाहित जोड़ों की हत्या करने में भी संकोच नहीं करता। यह आदिम युग की बर्बरता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। अपनी इच्छा से विवाह करने वाले युवक-युवतियों के निर्णय पर उनके घर-परिवार वालों को असहमति हो सकती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें हत्या करने की छूट मिल जाए। इस तरह की हत्याएं रोकने में शासन-प्रशासन के अतिरिक्त जातीय समूहों, पंचायतों, सामाजिक संगठनों का नेतृत्व करने वाले लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वे कोई पहल करते नहीं दिखाई देते। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि राजनेता उनके दबाव में या तो उनका साथ देते हुए नजर आते हैं या फिर मौन रहना पसंद करते हैं। जब तक यह स्थिति दूर नहीं होती तब तक कथित सम्मान की रक्षा के नाम पर की जाने वाली हत्याओं के कलंक से समाज और राष्ट्र को छुटकारा मिलने वाला नहीं है।