Sometimes it is hard to introduce yourself because you know yourself so well that you do not know where to start with. Let me give a try to see what kind of image you have about me through my self-description. I hope that my impression about myself and your impression about me are not so different. Here it goes.
Monday, February 21, 2011
खेल गांव में उमड़ रही भीड़
भीड़ नहीं, उत्साह खेल गांव में हर दिन उमड़ रही भीड़ हतोत्साहित झारखंड में नई आशा का संचार है। जब कुछ अच्छा होता है तो उसका परिणाम इसी रूप में आता है। यह उत्साह खेल और खिलाडि़यों से अधिक उन आकर्षक ढांचों को देखने का है, जिनको झारखंड नामक उस राज्य ने तैयार कराया है, जिसकी हर क्षेत्र में नकारात्मक छवि बन चुकी है। इन ढांचों को विश्र्वस्तरीय करार दिया जा चुका है। सबसे बड़ी बात यह कि इन ढांचों को तीन-चार तरह के शासन ने तैयार कराया। इसके बावजूद निर्माण की गुणवत्ता बनी रही। यही विशेषता निर्दिष्ट कर रही है कि झारखंड में बहुत कुछ अच्छा होने की संभावनाएं बाकी हैं। पंचायत चुनाव के तत्काल बाद संपन्न हो रहे 34वें राष्ट्रीय खेलों से ही सही राज्य की दशा-दिशा बदले तो अभी बहुत बिगड़ा नहीं है। याद करें, जिस बिहार को कई मामलों में मानक माना जा रहा है, उसकी पांच वर्ष पहले कैसी स्थिति थी। बिहार और बिहारियों के नाम पर ही लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते थे, आज वही दिल्ली तक को आकर्षित कर रहा है। वह भी तब, जबकि वहां कृषि के अलावा अन्य क्षेत्रों में झारखंड जैसी संभावनाएं नहीं हैं। झारखंड में खान-खनिज, भांति-भांति के वनोत्पादों के अलावा कृषि प्रक्षेत्र में भी संभावनाएं हैं। अकेले पर्यटन क्षेत्र में काम कर दिया जाय तो कश्मीर की तरह स्वर्गोपम प्राकृतिक सुषमा का आनंद इस राज्य में भी मिलने लगे। इसका सीधा असर राज्य के राजस्व के साथ-साथ स्वरोजगार पर पड़ेगा। फिर तो इसकी छवि अपने आप निखरने लगेगी। राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के नाम जब एक छोटा सा काम शासन ने कर दिया तो खेल गांव को देखने के लिए पांच-साढ़े पांच लाख लोग उमड़ पड़े। इस भीड़ की उमंग को तरंगों में बदलने का अवसर शासन-प्रशासन के सामने मुंह बाए खड़ा है। यह भी अच्छा संयोग है कि ऐसे ही अवसर पर राज्य की प्राय: छह माह पुरानी सरकार को अपना बजट पेश करना है। और कुछ न भी हो, केवल वास्तविक बजट तैयार कर उस पर सुविचारित तरीके से काम किया जाय और अपनी 4,430 पंचायतों से पर्याप्त सहयोग लेकर काम किया जाय तो सबसे अधिक परेशान करने वाले मुट्ठी भर नक्सली निश्चय ही या तो मुख्य धारा में शरीक होने को बाध्य हो जाएंगे या फिर काबू में आ जाएंगे। खेल गांव में उमड़ रही भीड़ के उत्साह का यही संदेश है, यह बात शासन-प्रशासन भी तो समझता ही होगा।
Tuesday, January 25, 2011
पंडित भीमसेन जोशी का गायन प्रभावशाली था
स्मरण भीमसेन जोशी पंडित भीमसेन जोशी का गायन जितना प्रभावशाली था उनका संगीत साधना का सफर भी उतना ही दिलचस्प रहा। उनका जन्म 4 फरवरी 1922 को कर्नाटक के धारवाड़ जिले में गडग में में हुआ। उनके पिता गुरुराज जोशी अध्यापक थे। भीमसेन का बचपन से ही रुझान गीत-संगीत की ओर था। उन्होंने एक बार उस्ताद अब्दुल करीम खान की ठुमरी पिया बिन नहीं आवत चैन.. सुनी। इसने उनके अंतर्मन पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि उन्होंने जीवन संगीत को समर्पित करने की ठान ली और किसी गुरु की तलाश में 11 वर्ष की आयु में घर से भाग गए। वह संगीत सीखने के लिए किसी अच्छे गुरु की तलाश में दिल्ली, कोलकाता, ग्वालियर, लखनऊ, रामपुर सहित कई स्थानों पर भटके। उनके पिता उनकी तलाश में भटक रहे थे। आखिरकार उन्होंने उन्हें जालंधर में ढूंढ़ निकाला और वापस घर ले गए। पंडित सवाई गंधर्व ने 1936 में पंडित जोशी को शिष्य बना लिया और वहीं से उनकी विधिवत संगीत साधना आरंभ हुई। सवाई गंधर्व के गुरु उस्ताद अब्दुल करीम खान थे, जिन्होंने अपने भाई अब्दुल वहीद खान के साथ मिलकर संगीत के किराना घराने की स्थापना की थी। गुरु गंधर्व की छत्रछाया में पंडित जोशी ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की विभिन्न विधाओं ख्याल, ठुमरी, भजन और अभंग की गायकी में महारत हासिल की। दरबारी, शुद्ध कल्याण, मियां की तोड़ी, मुल्तानी आदि उनके पसंदीदा राग थे। 22 वर्ष में उनका पहला संगीत संग्रह एचएमवी ने जारी किया। उन्होंने कन्नड़, हिंदी और मराठी भाषा में भजन भी गाए। पं. जोशी को 1972 में पद्मश्री, 1976 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1985 में पद्मभूषण, 1985 में सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, 1999 में पद्म विभूषण, 2005 में कर्नाटक रत्न और 2008 में भारत रत्न सम्मान मिला। उन्होंने बीरबल, माई ब्रदर, तानसेन और अनकही आदि फिल्मों में पार्श्वगायन किया। पंडित जोशी के दो विवाह हुए। उनके छह बच्चे हैं। उनके एक पुत्र श्रीनिवास जोशी उनकी परंपरा आगे बढ़ा रहे हैं।
Thursday, December 23, 2010
प्याज की पहेली !!!
प्याज की पहेली यह अच्छी बात है कि आम जनता की तरह प्रधानमंत्री भी इससे हैरान हैं कि प्याज के भाव अचानक आसमान क्यों छूने लगे, लेकिन इसमें संदेह है कि उनके कार्यालय की ओर से कृषि और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय को चिट्ठी लिखने भर से बात बनने वाली है। चूंकि महज दो-चार दिन में प्याज के भाव दोगुने होने का कोई तर्कसंगत कारण नजर नहीं आता इसलिए सरकार को कम से कम यह तो बताना ही चाहिए कि प्याज यकायक आम जनता की पहुंच से दूर कैसे हो गया? अभी तो यही समझना मुश्किल है कि प्याज की किल्लत क्यों पैदा हुई, क्योंकि एक ओर जहां कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार यह कह रहे हैं कि फसल खराब होने से यह समस्या आई है वहीं दूसरी ओर सरकार में ही कुछ लोग इसके लिए जमाखोरों को जिम्मेदार मान रहे हैं। स्पष्ट है कि अभी यह तय नहीं कि प्याज के दाम किन कारणों से आसमान छू रहे हैं। आखिर जो सरकार किसी समस्या के कारणों से ही परिचित न हो वह उसका समाधान कैसे कर सकती है? यदि प्याज उत्पादन में अग्रणी नाशिक में बारिश के कारण 20 प्रतिशत फसल खराब हो गई थी तो भी इतने मात्र से उसके दाम एक सप्ताह मेंदोगुना कैसे हो सकते हैं? ऐसा तो तभी हो सकता है जब जमाखोरों को यह संकेत दिया गया हो कि उनके लिए कमाई करने का समय आ गया है। क्या यह लज्जाजनक नहीं कि केंद्र सरकार की नाक के नीचे यानी दिल्ली में प्याज की जमाखोरी की गई है? आखिर कृषि के साथ-साथ खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय संभालने वाले शरद पवार किस मर्ज की दवा हैं? प्याज की फसल खराब होने से परिचित होने के बावजूद उन्होंने इसके लिए कोई प्रयास क्यों नहीं किए कि उसकी आपूर्ति प्रभावित न होने पाए? यदि एक साथ दो मंत्रालय संभालने वाले शरद पवार को जनता की परवाह ही नहीं तो फिर उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद में क्यों होना चाहिए? क्या कारण है कि उनकी अनिच्छा के बावजूद खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय उनके पास बना हुआ है? इस पर आश्चर्य नहीं कि प्याज के दामों में अप्रत्याशित तेजी के पीछे कोई घपला-घोटाला हो। शरद पवार ने जिस तरह प्याज के दामों पर शीघ्र काबू पाने का आश्वासन देने के बजाय यह कहा कि हालात सामान्य होने में तीन हफ्ते लग जाएंगे उससे तो यह लगता है कि उन्हें या तो प्याज के व्यापारियों की फिक्र है या फिर उसकी जमाखोरी करने वालों की? जब जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों और विशेष रूप से केंद्रीय मंत्रियों से यह अपेक्षित है कि वे आने वाली समस्या को समय रहते भांपकर ऐहतियाती कदम उठाएं तब खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में शरद पवार उलटा काम कर रहे हैं। प्याज का संकट महज एक फसल की किल्लत ही नहीं है, बल्कि यह खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता की नाकामी और एक तरह के जनविरोधी आचरण का एक और उदाहरण है। ध्यान रहे कि ऐसा ही नाकारापन तब दिखाया गया था जब चीनी के दाम बेकाबू हो रहे थे। प्याज का संकट यदि कुछ बयान कर रहा है तो यह कि संप्रग सरकार से महंगाई पर लगाम लगाने की अपेक्षा रखना व्यर्थ है। वैसे भी ऐसा कुछ होता नजर नहीं आता।
Monday, September 6, 2010
शर्मनाक खेल क्रिकेट
शर्मनाक खेल क्रिकेट में मैच फिक्सिंग से बड़ी बीमारी के रूप में उभरी स्पॉट फिक्सिंग को लेकर सामने आए एक अन्य खुलासे के बाद यह खेल और अधिक दागदार नजर आने लगा है। हालांकि स्पॉट फिक्सिंग करने वाले पाकिस्तानी क्रिकेटर खुद को पाक-साफ बताने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन एक तो वे पैसे के लेन-देन में लिप्त पाए गए हैं और दूसरे उनकी विश्वसनीयता इतनी गिर चुकी है कि कोई भी उन पर यकीन करने वाला नहीं है। जिस तरह पाकिस्तानी क्रिकेटरों की सफाई पर भरोसा करना मुश्किल है उसी तरह वहां के क्रिकेट बोर्ड के अधिकारियों पर भी। पाकिस्तान क्रिकेट अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए जूझ रहा है, लेकिन वहां के क्रिकेट बोर्ड के अधिकारी इस जुगत में लगे हैं कि कैसे स्पॉट फिक्सिंग के इस पूरे मामले को पाकिस्तान के खिलाफ साजिश करार दिया जा सके। कहीं यह इसलिए तो नहीं हो रहा कि क्रिकेट के इस शर्मनाक खेल में किसी न किसी स्तर पर वे स्वयं भी शामिल हैं? वैसे भी यह सहज नहीं जान पड़ता कि किसी क्रिकेट टीम के सदस्य स्पॉट फिक्सिंग करने और मैच हारने में जुटे रहें और टीम प्रबंधन को इसकी भनक तक न लगे। एक तरह से यह असंभव सी बात है। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अधिकारियों ने स्पॉट फिक्सिंग को लेकर जिस तरह दूसरों को दोषी बताने की कोशिश की उससे तो यह लगता है कि इस देश ने अपनी हर समस्या के लिए औरों को जिम्मेदार ठहराने की नीति अपना ली है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद की भ्रष्टाचार निरोधक इकाई क्रिकेट में भूचाल लाने वाले स्पॉट फिक्सिंग के इस मामले की जांच शुरू कर रही है और जांच होने तक तीन क्रिकेटरों को निलंबित कर एक तरह से अप्रत्याशित सख्ती का परिचय दिया गया है, लेकिन इस सबके बावजूद यह कहना कठिन है कि वह क्रिकेटरों और सट्टेबाजों की साठगांठ को ध्वस्त करने में सफल साबित होगी। इसके लिए उसे न केवल और अधिक सख्ती का परिचय देना होगा, बल्कि कठोर नियम-कानून भी बनाने होंगे। इन नियम-कानूनों के दायरे में क्रिकेटरों के साथ-साथ टीमों के प्रबंध तंत्र को भी शामिल करना होगा। आईसीसी को इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि वह फुटबाल की सर्वोच्च संस्था फीफा के समान क्रिकेट की निगरानी और नियमन क्यों नहीं कर पा रही है? यह एक तथ्य है कि आईसीसी और विभिन्न देशों के क्रिकेट बोर्ड इस खेल में घर कर गई बुराइयों को दूर करने में असफल ही अधिक हैं। इस खेल में जैसे-जैसे पैसा आता जा रहा है, भ्रष्टाचार की जड़ें गहराती जा रही हैं। यदि क्रिकेट की लोकप्रियता और उसका मान-सम्मान बनाए रखना है तो सभी देशों के क्रिकेट प्रशासकों को एकजुट होकर ऐसी कोई व्यवस्था करनी होगी जिससे यह अद्भुत खेल सट्टेबाजों के हाथों का खिलौना न बनने पाए। क्रिकेट प्रशासकों के साथ-साथ संबंधित देशों अर्थात क्रिकेट खेलने वाले देशों की सरकारों को भी चेतने की जरूरत है। यह सही है कि वे क्रिकेट प्रशासकों के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं, लेकिन उन्हें यह तो सुनिश्चित करना ही होगा कि किसी भी खेल से खिलवाड़ न होने पाए। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि क्रिकेट में किस्म-किस्म की सट्टेबाजी बढ़ती चली जा रही है और यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय माफिया सरगनाओं का हाथ है।
Sunday, August 29, 2010
अप्रवासी भारतीय

भारत सरकार अप्रवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार देकर उनके लिए चुनाव लड़ने का रास्ता भी साफ कर रही है। जो व्यक्ति मतदाता है वह चुनाव भी लड़ सकता है और सांसद बनने के बाद देश का प्रधानमंत्री भी बन सकता है, यह संवैधानिक व्यवस्था है। पिछले दिनों राज्यसभा में संप्रग सरकार ने जनप्रतिनिधित्व संशोधन-विधेयक पेश किया। इसके द्वारा जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 में संशोधन करते हुए अप्रवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार देने और इसके लिए प्रक्रिया निर्धारित करने की व्यवस्था की जाएगी। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने विधेयक पेश करते हुए बताया कि सरकार जनप्रतिनिधित्व संशोधन विधेयक 2006 को वापस ले रही है, क्योंकि इसमें अप्रवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार देने संबंधी पूरे नियमों तथा अन्य कुछ बातों का विवरण नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि नया कानून बनने के बाद दूसरे देशों में रहने वाले भारतीयों के नाम भी मतदाता सूची में दर्ज किए जाएंगे और उनके नाम उस जगह की मतदाता सूची में होंगे जिस निवास स्थान का पता उन्होंने अपने पासपोर्ट में दिया है। मतदाता सूचियों में उनके नाम दर्ज किए जाने की समय सीमा तय करने से पहले चुनाव आयोग से चर्चा के बाद स्थिति स्पष्ट की जाएगी। संसद में कानून मंत्री ने यह भी कहा है कि अप्रवासी भारतीय लंबे समय से मतदान के अधिकार की मांग कर रहे हैं। उनकी यह मांग उचित भी है और यह अधिकार देने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित होगी। 2006 में भी ऐसा ही विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया था, पर जब यह विधेयक संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए गया तब समिति ने विधेयक के प्रावधानों को मंजूर तो किया, मगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में कुछ और प्रावधान जोड़ते हुए विधेयक पेश करने का सुझाव भी दिया। अब यह स्पष्ट हो गया कि भारत सरकार संसद द्वारा पारित करवाकर अप्रवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार देने का मन बना चुकी है और यह भी स्पष्ट है कि यह लोग चुनाव भी लड़ेंगे और देश की संसद में पहुंचकर सत्ता के भागीदार भी होंगे। वैसे भी हम सब जानते हैं कि विदेशों में बसे बहुत से भारतीय चुनाव के दिनों में अपना प्रभाव और धन अपनी रुचि के राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों पर पूरे जोर-शोर से लगाते हैं। उनकी सोच भी सही होगी कि हम शासक बनाते हैं, शासक बन क्यों नहीं सकते? अपने देश में जहां चुनावों में धन-बल का प्रभुत्व है, वहां विदेशी धन के साथ जब यह अप्रवासी भारतीय चुनाव के महासमर में हिस्सा लेंगे तब धन की शक्ति और भी प्रबल हो जाएगी। सरकार के आंकड़े ही बताते हैं कि आज भी हमारी संसद में 360 से अधिक सदस्य करोड़पति हैं। वैसे भी क्या गारंटी है कि चुनाव जीतने के बाद यह प्रवासी प्रवासी न रहेंगे और देश में आकर उनकी सेवा करेंगे जिनके मतों से यह लोग संसद में पहुंच जाएंगे? आज भी तो देश में समस्या है कि विधानसभा और संसद के सदस्य बनने के बाद बहुत से सांसद और विधायक अपने चुनाव क्षेत्र में महीनों और वर्षाे तक नहीं जाते। देश और प्रदेशों की राजधानियों के सुखद आवासों में रहकर वे उन क्षेत्रों को भूल जाते हैं जहां सड़क नहीं, पीने को साफ पानी नहीं, जहां अन्न गोदामों में सड़ता है और लोग भूख से तड़प-तड़प कर प्राण देते हैं। प्रधानमंत्री, कानून मंत्री तथा सभी सांसदों से यही अपेक्षित है कि जिस समय विदेश में बसे भारतीयों को मतदान एवं चुनाव लड़ने का अधिकार दिया जाए उसके साथ ही यह भी व्यवस्था की जाए कि भारत में रहने वाले अथवा अप्रवासी भारतीय जो भी सांसद बनें वे अपने चुनाव क्षेत्र में एक निश्चित समय तक रहेंगे और जब तक उस क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं तब तक अपना स्थायी निवास भी उन्हीं गली-बाजारों में रखेंगे। अपने देश के कुछ सांसदों और कुछ राजनीतिक पार्टियों ने अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के लिए जिस तरह का दृश्य संसद में प्रस्तुत किया है उससे भी सांसदों का सम्मान घटा है। वेतन भत्तों के लिए तथा अन्य सुख सुविधाएं प्राप्त करने के लिए जो दृश्य संसद में सांसदों ने दिखाया उससे ऐसा लगा कि सड़क पर नारे लगाकर वेतन वृद्धि मांगने वाले मजदूरों और कनिष्ठ कर्मचारियों के आंदोलन में तथा सांसदों के आंदोलन में कोई अंतर नहीं। अंतर यह है कि संसद में शोर मचाने वालों को हजारों रुपये वेतन और दैनिक भत्ते के रूप में मिल जाते हैं, पर सड़क पर खड़े होकर आंदोलन करने वालों को लाठियां मिलती हैं।
Thursday, August 12, 2010
Friday, July 30, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)