Tuesday, August 23, 2011

280 लाख करोड़ का सवाल है.

दर्द होता रहा छटपटाते रहे, आईने॒से सदा चोट खाते रहे, वो वतन बेचकर मुस्कुराते रहे
हम वतन के लिए॒सिर कटाते रहे



280
लाख करोड़ का सवाल है ...
भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा"* ये कहना है स्विस बैंक के डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपये उनके स्विस बैंक में जमा है. ये रकम इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है.


या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है.

ऐसा भी कह सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60 साल तक ख़त्म ना हो. यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत नहीं है. जरा सोचिये ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को

लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2011 तक जारी है.


इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा.

मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़ लूटा है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में 280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है.

भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की कितना पैसा हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है.

हमे भ्रस्ट राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारीयों के खिलाफ जाने का पूर्ण अधिकार है.हाल ही में हुवे घोटालों का आप सभी को पता ही है - CWG घोटाला, २ जी स्पेक्ट्रुम घोटाला , आदर्श होउसिंग घोटाला ... और ना जाने कौन कौन से घोटाले अभी उजागर होने वाले है ........

आप लोग जोक्स फॉरवर्ड करते ही हो.

इसे भी इतना फॉरवर्ड करो की पूरा भारत इसे पढ़े ... और एक आन्दोलन बन जाये !!!!

Friday, July 22, 2011

वाह घोटाला वाह !!!!!



क्या हम सब को यह देख कर चुप रहना चहिये.अगर यह घोटाला हुआ है तो इसके लिए जिमेदार हम खुद है .क्या हो गया है हमारी आवाज़ को ? कहाँ गई वह आवाज़ जिसने हम को आज़ादी दिलाई थी ??? क्या हमारा खून ठंडा पड़ गया है ?? या हमको इसकी आदत हो गई है ?? सायद हम आपने आनेवाले समय को नहीं देख रहे है ......

Wednesday, June 15, 2011

लोकपाल बिल हाल !!!!



लोकपाल पर केंद्र सरकार का रवैया किसी से छिपा नहीं। वह जनता के दबाव में लोकपाल विधेयक तैयार करने की हामी तो भर रही है, लेकिन अनिच्छा के साथ। अब यह भी स्पष्ट है कि वह एक समर्थ और प्रभावी लोकपाल बनाने से बचना चाहती है। विडंबना यह है कि ऐसा ही रवैया राज्य सरकारों का भी है। ज्यादातर राज्य सरकारों ने इस या उस बहाने लोकपाल पर राय देने से इंकार कर दिया। किसी ने वक्त की कमी का रोना रोया तो किसी को सलाह मांगने का केंद्र सरकार का तरीका रास नहीं आया। कुछ राज्यों ने यह कहकर छुट्टी पा ली कि लोकपाल विधेयक पर जब संसद में चर्चा होगी तब वे अपनी राय सार्वजनिक करेंगे। कुछ राज्य यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि यह सिर्फ केंद्र सरकार से जुड़ा मुद्दा है, जबकि तथ्य यह है कि जिस तरह केंद्र के स्तर पर लोकपाल बनना है उसी तरह राज्यों में भी लोकायुक्तों की तैनाती होनी है। यह आश्चर्यजनक है कि 28 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रांतों में से कुल 17 ने अपनी राय दी और उनमें से भी ज्यादातर ने आधे-अधूरे ढंग से। इससे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यह कि राज्य सरकारें देश की जनता को उद्वेलित करने वाले मुद्दे पर कितनी अगंभीर हैं। यह तब है जब आम जनता राज्य सरकारों की ओर से नियंत्रित प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से अधिक त्रस्त है। राज्य सरकारें इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकतीं कि आम आदमी को छोटे-छोटे काम कराने के लिए कदम-कदम पर रिश्वत देनी पड़ती है और उनके कई विभाग तो ऐसे हैं जहां घूस के रेट तय हैं। चूंकि कुछ विभागों की ओर से ली जाने वाली रिश्वत की रकम ऊपर तक जाने लगी है इसलिए रिश्वत के रेट बढ़ते जा रहे हैं। दरअसल इसी के चलते भारत भ्रष्ट देशों की सूची में शीर्ष पर बना हुआ है और दुनिया भर में अपनी बदनामी करा रहा है। इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार के बावजूद ज्यादातर राज्य सरकारें रिश्वतखोरी की संस्कृति को समाप्त करने के लिए कहीं कोई उपक्रम नहीं कर रही हैं। वे मध्य प्रदेश, बिहार आदि का अनुकरण करने के लिए भी तैयार नहीं जो आम आदमी को भ्रष्टाचार से बचाने के लिए लोक सेवा गारंटी अधिनियम लेकर आए हैं। राज्य सरकारें इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं कि बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण अब स्थिति यह है कि उनकी प्राथमिकता वाली योजनाएं भी सही ढंग से नहीं चल पा रही हैं। बात चाहे जनकल्याणकारी योजनाओं की हो अथवा विकास योजनाओं की-वे भ्रष्टाचार से जूझती रहती हैं। इस सबके बावजूद जिस तरह केंद्र सरकार प्रशासनिक सुधारों के मामले में हाथ पर हाथ धरे बैठी है उसी तरह राज्य सरकारें भी इस मोर्चे पर कुछ करने के लिए तैयार नहीं। राज्य सरकारें न तो खुद जवाबदेही के दायरे में आना चाहती हैं और न ही अपने प्रशासनिक तंत्र को जवाबदेह बनाना चाहती हैं। सच तो यह है कि ज्यादातर राज्य सरकारें हर उस पहल की अनदेखी करती हैं जो प्रशासनिक तंत्र को जवाबदेह और पारदर्शी बनाने में सहायक होती है। यह किसी से छिपा नहीं कि सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद अधिकांश राज्य सरकारों ने किस तरह सूचना आयुक्तों और सूचना अधिकारियों की तैनाती में हीलाहवाली का परिचय दिया था। लोकपाल और लोकायुक्त के मुद्दों पर राज्य सरकारों के गैर जिम्मेदार रवैये को देखते हुए यह और अधिक आवश्यक हो जाता है कि भ्रष्टाचार का जो मुद्दा अभी केंद्र सरकार तक सीमित है उसे राज्य सरकारों के स्तर पर भी ले जाया जाए।

Wednesday, June 1, 2011

लोकपाल के लिए नाटक !!!



भारत की जनता के साथ लोकपाल पर धोखाधड़ी ,लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति के बीच यकायक उभरे मतभेद यदि कुछ स्पष्ट कर रहे हैं तो यही कि केंद्र सरकार के इरादे नेक नहीं हैं। इस समिति में शामिल सरकारी पक्ष जिस तरह इस पर जोर दे रहा है कि न तो प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए, न सांसदों के संसद में किए गए आचरण को और न ही वरिष्ठ नौकरशाहों को उससे तो ऐसा लगता है कि देश के साथ या तो छल किया जा रहा है या फिर भद्दा मजाक? ध्यान रहे कि लोकपाल से न्यायाधीशों को बाहर रखने की दलील इस आधार पर पहले से ही दी जा रही है कि उनके लिए न्यायिक जवाबदेही विधेयक लाया जा रहा है। तथ्य यह है कि यह आश्वासन संप्रग सरकार के पिछले कार्यकाल से दिया जा रहा है और बावजूद इसके हाल-फिलहाल इस विधेयक के पारित होने के आसार उतने ही दुर्बल हैं जितने दो वर्ष पहले थे। यदि केंद्र सरकार को केवल चंद कनिष्ठ अधिकारियों को ही लोकपाल के दायरे में लाना है और वह भी सीबीआइ को स्वायत्तता दिए गए बगैर तो फिर बेहतर होगा कि सरकार लोकपाल व्यवस्था के निर्माण के संदर्भ में झूठी दिलासा न दे। कागजी शेर सरीखे लोकपाल का कहीं कोई मूल्य-महत्व नहीं। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि यह वही सरकार है जिसने अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद देश को यह समझाने की कोशिश की थी वह भ्रष्टाचार से लड़ने और इसके लिए एक सक्षम लोकपाल बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। आखिर इस प्रतिबद्धता का लोप क्यों हो गया? क्या इसलिए कि सरकार की ऐसी कोई मंशा ही नहीं थी? अब तो इस पर भी संदेह हो रहा है कि केंद्र सरकार ने अन्ना हजारे और उनके साथियों के साथ लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने की पहल उनके आंदोलन को निष्प्रभावी बनाने और जनता का ध्यान बंटाने के लिए ही की थी। यह निकृष्ट राजनीति का एक और नमूना ही है कि जो सरकार कल तक सक्षम लोकपाल बनाने पर सहमति दिखा रही थी वह यकायक इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों को चिट्ठी लिखकर यह पूछने जा रही है कि क्या प्रधानमंत्री, शीर्ष न्यायपालिका और संसद के भीतर सांसदों के कार्यो को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए? आखिर यह कार्य अभी तक क्यों नहीं किया गया? निश्चित रूप से प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में रखने पर विचार-विमर्श हो सकता है, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि अन्य न्यायाधीशों, संसद के भीतर सांसदों के कार्यो और वरिष्ठ नौकरशाहों को भी पारदर्शिता व जवाबदेही से मुक्त रखा जाए। यदि यही सब करना है तो फिर भ्रष्टाचार से लड़ने की बड़ी-बड़ी बातें क्यों की जा रही हैं? इस पर आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार ने जैसा रवैया लोकपाल विधेयक के मामले में अपना लिया है वैसा ही काले धन के संदर्भ में भी प्रदर्शित कर रही है। काले धन के खिलाफ राष्ट्रव्यापी चेतना जागृत कर रहे बाबा रामदेव के सत्याग्रह का समय जैसे-जैसे करीब आता जा रहा है, सरकार वैसे-वैसे यह दिखावा करने में लगी हुई है कि इस मुद्दे को लेकर वह गंभीर है। जिस तरह बाबा रामदेव को सत्याग्रह न करने के लिए मनाने की कोशिश शुरू कर दी गई है उसे केंद्र सरकार की एक और चालबाजी कहा जाएगा। केंद्र सरकार के ऐसे रवैये को देखते हुए यह और आवश्यक हो जाता है कि बाबा रामदेव अपना संघर्ष जारी रखें और देश उनके पीछे उसी तरह एकजुट होकर खड़ा हो जैसा कि वह अन्ना हजारे के आंदोलन के वक्त खड़ा हुआ था।अब आम जनता को अपने कीमती समय से कुछ समय देश के लिए निकल न ही होगा .

Tuesday, May 10, 2011

" चेतना" का समय उच्चतम न्यायालय की इस कठोर टिप्पणी के बाद सरकारों को भी चेतना चाहिए और समाज को भी कि सम्मान की कथित रक्षा की खातिर की जाने वाली हत्याएं राष्ट्र के लिए कलंक हैं और इनके लिए जिम्मेदार लोगों को मौत की सजा दी जानी चाहिए। चूंकि खुद उच्चतम न्यायालय ने यह पाया है कि ऑनर किलिंग एक क्रूर, असभ्य और सामंती प्रथा है इसलिए समाज का चेतना आवश्यक है। ऐसी सामाजिक बुराइयां कठोर कानून का निर्माण करने मात्र से दूर होने वाली नहीं हैं। ऑनर किलिंग मामले के एक अभियुक्त को सुनाई गई आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले की प्रति सभी हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल, राज्यों के मुख्य सचिव, गृह सचिव और पुलिस महानिदेशकों को भेजने का निर्देश दिया है, लेकिन आखिर इस निर्णय और उसकी गंभीरता से समाज को कौन अवगत कराएगा? पिछले कुछ समय से ऑनर किलिंग को रोकने के लिए ठोस कानून बनाने की बातें हो रही हैं। तर्क यह दिया जा रहा है कि किसी प्रभावी कानून के अभाव में ऑनर किलिंग के दोषियों को दंडित करने में मुश्किल पेश आ रही है। यह तर्क समझ से परे है, क्योंकि हत्या तो हत्या है-फिर वह चाहे तथाकथित सम्मान की रक्षा के लिए की जाए या फिर अन्य किन्हीं कारणों से। यह भी समझ से परे है कि जब देश के कुछ हिस्सों में इस तरह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं तब फिर प्रभावी कानून बनाने में देरी क्यों हो रही है? ऑनर किलिंग के तहत होने वाली हत्याओं को रोकने के लिए जो कुछ भी संभव है वह तत्काल प्रभाव से किया जाना चाहिए, क्योंकि इस तरह की घटनाएं समाज और राष्ट्र की बदनामी का कारण बन रही हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में प्रति वर्ष एक बड़ी संख्या में प्रेमी जोड़ों अथवा विवाहित युगलों को विवाह संबंधी जातीय अथवा सामाजिक परंपराओं के उल्लंघन के आरोप में मार दिया जाता है। सबसे ज्यादा प्रताडि़त एक ही गोत्र में विवाह करने वाले युगल होते हैं। हालांकि न्यायपालिका विवाह के मामले में गोत्र को महत्व देने के लिए तैयार नहीं, लेकिन ग्रामीण समाज का एक वर्ग गोत्र के उल्लंघन को इतनी बड़ी बुराई मानता है कि विवाहित जोड़ों की हत्या करने में भी संकोच नहीं करता। यह आदिम युग की बर्बरता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। अपनी इच्छा से विवाह करने वाले युवक-युवतियों के निर्णय पर उनके घर-परिवार वालों को असहमति हो सकती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें हत्या करने की छूट मिल जाए। इस तरह की हत्याएं रोकने में शासन-प्रशासन के अतिरिक्त जातीय समूहों, पंचायतों, सामाजिक संगठनों का नेतृत्व करने वाले लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वे कोई पहल करते नहीं दिखाई देते। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि राजनेता उनके दबाव में या तो उनका साथ देते हुए नजर आते हैं या फिर मौन रहना पसंद करते हैं। जब तक यह स्थिति दूर नहीं होती तब तक कथित सम्मान की रक्षा के नाम पर की जाने वाली हत्याओं के कलंक से समाज और राष्ट्र को छुटकारा मिलने वाला नहीं है।

Thursday, March 17, 2011

झारखंड की धुंधली तस्वीर

यह तो होना ही था जिन 34वें राष्ट्रीय खेलों के सफल आयोजन ने देश-दुनिया में झारखंड की धुंधली तस्वीर पर स्वच्छ बौछार डालते हुए थोड़ा चमकाया, उन्हीं राष्ट्रीय खेलों की तैयारी की पृष्ठभूमि यह भी उजागर करेगी कि आयोजकों ने कैसे-कैसे खेल किए। इस संदर्भ में निगरानी ब्यूरो द्वारा डाले जा रहे छापे सच्चे निष्कर्ष तक पहुंचे तो यह राज खुलने में देर न लगेगी कि कल तक फर्श पर पड़े लोग आज अर्श पर कैसे नजर आ रहे हैं। हालांकि ऐसे तत्व छोटी मछलियां हैं, जबकि इनके पीछे शातिर दिमाग बड़े मगरमच्छ भी हैं, जिनके ताल्लुकात राजनीतिक नेताओं और ऊंचे अधिकारियों से भी हैं। पूरा मामला दिल्ली में हाल ही संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों की तर्ज पर डील हुआ। 34वें राष्ट्रीय खेलों के बहाने करोड़ों की लूट और बंदरबांट की कहानी सबसे पहले राज्य के प्रधान महालेखाकार की टीम ने साल भर पहले ही शासन को सौंप दी थी, जिस पर धीरे-धीरे मंथन चलता रहा। वह मंथन अंजाम तक पहुंचता, इसके पहले ही निगरानी जांच की सिफारिश हो गई और लगे हाथ आयोजन का समय भी सामने आ गया। यही वह कारण था, जिससे बात दबी-धुआंती रही। अब जबकि घोटालेबाजों पर निगरानी छापों का दौर शुरू हो गया है तो असलियत सामने आने की उम्मीद बंधी है, बशर्ते बिना प्रभावित हुए और बिना किसी का पक्ष लिए जांच आगे बढ़ायी जाय और अंजाम तक पहुंचाया जाय। चूंकि राष्ट्रीय खेलों का आयोजन एक राष्ट्रीय मुद्दा था और झारखंड के लिए स्वर्णिम अवसर भी, इसलिए बीच में निगरानी ने चुप्पी साध अच्छा ही किया। लेकिन जैसा कि इस राज्य में होता रहा है और निगरानी एकदम स्वतंत्र एजेंसी भी नहीं है, यदि दबाव और प्रभाव की राजनीति चली तो जांच लंबी कर दी जा सकती है या अनुसंधान में मेरा आदमी-तेरा आदमी का भी पेंच पैदा हो सकता है। जितने व्यापक पैमाने पर इस आयोजन के नाम घोटाले हुए हैं, वे रुपए जनता की गाढ़ी कमाई के थे, जिसे कुछ लोगों ने घर की मलाई समझ चट कर लिया। आयोजन की भव्यता के कारण जो नेकनामी राज्य को मिली है, जांच के अंजाम तक पहुंचने पर उसमें चार चांद ही लगेंगे क्योंकि तब यह साबित हो सकेगा कि अच्छे को अच्छा कहने और बुरे को बुरा कहने के अलावा दंडित करने में भी झारखंड पीछे नहीं रहता।

Tuesday, March 8, 2011

आरक्षण की मांग

अनुचित तरीका जाट समुदाय के नेताओं की केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण की मांग के पीछे कुछ उपयुक्त आधार हो सकते हैं, लेकिन वे अपनी मांगें मनवाने के लिए जिन उपायों का सहारा ले रहे हैं वे सर्वथा अनुचित और अस्वीकार्य हैं। आरक्षण की मांग के लिए रेल ट्रैक बाधित करने का कहीं कोई औचित्य नहीं। रेल यातायात ठप करना एक तरह से समाज को बंधक बनाना और राष्ट्र को क्षति पहुंचाना है। समस्या यह है कि अब किस्म-किस्म के आंदोलनकारी कहीं अधिक आसानी से रेलों को निशाना बनाने लगे हैं। हाल ही में अलग तेलंगाना राज्य की मांग कर रहे लोगों ने जब अपने आंदोलन को गति दी तो उन्होंने सबसे पहले रेल यातायात को ही बाधित किया। इसी तरह नक्सली जब चाहते हैं तब रेल यातायात ठप कर देते हैं। विडंबना यह है कि जबसे ममता बनर्जी रेलमंत्री बनी हैं तब से रेल प्रशासन नक्सलियों के आगे हथियार डालकर खुद ही रेलों का आवागमन रोक देता है। अब तो उन मांगों को लेकर भी रेल यातायात अवरुद्ध किया जाता है जिनका केंद्र सरकार से कोई लेना-देना नहीं होता। हालांकि उच्चतम न्यायालय हर छोटी-बड़ी बात पर रेल यातायात ठप करने की प्रवृत्ति के खिलाफ गहरी नाराजगी जता चुका है और वह रेल ट्रैक बाधित करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई किए जाने के भी निर्देश दे चुका है, लेकिन न तो राज्य सरकारें अपेक्षित गंभीरता का परिचय दे रही हैं और न ही केंद्र सरकार। हरियाणा में दलितों के उत्पीड़न के एक मामले में पुलिस की कार्रवाई से खफा एक वर्ग विशेष के जिन लोगों ने रेल यातायात को निशाना बनाया था उनके खिलाफ कार्रवाई करने के निर्देश राज्य सरकार को दिए गए थे, लेकिन उसने कार्रवाई के नाम पर लीपापोती ही अधिक की। यदि यह सोचा जा रहा है कि रेल मंत्रालय के इस आश्वासन से आंदोलनकारी रेलों को निशाना बनाना छोड़ देंगे कि जिन राज्यों में रेल यातायात बाधित नहीं किया जाएगा उन्हें नई ट्रेनों और परियोजनाओं का लाभ दिया जाएगा तो यह सही नहीं, क्योंकि रेल अथवा सड़क मार्ग बाधित करने की प्रवृत्ति ने एक राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया है। इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब रेल रोकने की प्रवृत्ति के खिलाफ राज्य सरकारें भी सख्ती का परिचय दें और केंद्र सरकार भी। दुर्भाग्य से फिलहाल ऐसा कुछ होता हुआ नजर नहीं आता। जहां राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी केंद्र के सिर डालकर पल्ला झाड़ लेती हैं वहीं केंद्र सरकार चेतने से ही इनकार करती है। यही कारण है कि कई बार आंदोलनकारी कई-कई दिनों तक रेल पटरियों पर कब्जा किए रहते हैं। एक बार फिर ऐसा ही देखने को मिल रहा है। केंद्र सरकार न तो जाट नेताओं की आरक्षण संबंधी मांग पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करने की जरूरत समझ रही है और न ही उनके द्वारा जगह-जगह रेल यातायात ठप किए जाने के मामले पर। जाट नेताओं की आरक्षण की मांग के संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वे पिछले तीन वर्षो से आंदोलनरत हैं और कोई नहीं जानता कि केंद्र सरकार उनकी मांगों पर किस दृष्टि से विचार कर रही है? उसके ऐसे रवैये से तो यही लगता है कि वह समस्या को टालने की ही नीति पर चल रही है। वस्तुस्थिति जो भी हो, जाट नेताओं को यह समझना ही होगा कि वे इस तरह से समाज की सहानुभूति-समर्थन अर्जित नहीं कर सकते।