Tuesday, March 30, 2010

भारतीय रंग मंच

भारतीय थिएटर के प्रादुर्भाव का इतिहास पौराणिक कथा काल में हुआ जब भ्रष्‍टाचार और शक्ति के चंगुल से मानवता को मुक्‍त करने की आवश्‍यकता से ब्रहमा ने नाट्य शास्‍त्र या नाटक कला का सृजन किया और इसके अर्थभेद से विवेकपूर्ण भारत को आलोकित किया, जिसने बाद में कला रूप को अपने शिष्‍यों को सिखाया जिसे उसने पूरी दुनिया में फैलाया। इस प्रकार से अभिनय कला का एक सबसे पुरान रूप अस्तित्‍व में आया, जो असंख्‍य चरणों के जरिए दर्शकों के मन को आहलादित करने के लिए प्रबल रहा, जिन्‍होंने किसी नाटकीय अभिनय देखा है।

भारतीय थिएटर भारत की संस्‍कृतियों और परम्‍पराओं के बारे में बहुत कुछ बयान करता है, इसके त्‍यौहारों के रंग, और जन समूह का कोलाहल। भारत में थिएटर अभिनय व्‍याख्‍यात्‍मक शैली में शुरू हुआ जिसमें बहुत अधिक वर्णन गाने और नृत्‍य शामिल थे। इन सभी कला रूपों के संकलन के कारण ही थिएटर अभिनय और सृजनात्‍मक कला के सभी अन्‍य रूपों में अव्‍वल रहा। भारतीय थिएटर चूंकि ब्रहमा ने अपने आप दुनिया में सम्‍पन्‍न किया है, यह आरंभिक दिनों के दौरान देवताओं को समर्पित और सम्‍मानित करने की सतत यात्रा रहा है। बाद में नाटकीय के जटिल रूपों का विकास हुआ जो समकालीन थिएटर कहलाता है।

भारतीय थिएटर को मोटे तौर पर तीन विकास अवस्‍थाओं में विभाजित किया जा सकता है - प्राचीन काल, परम्‍परागत काल और आधुनिक काल ये अवस्‍था ने घटनाएं और घटनाक्रम निर्धारित किए हैं, जिन्‍होंने भारतीय थिएटर को संवारा है, जो आज प्रचलित है।

प्राचीन काल

इस काल में नाटक का संकेन्‍द्रण नाटक लिखने के कार्य के इर्द-गिर्द और रंगमंच अभिनय या नाटक प्रस्‍तुत करने की कला के इर्द-गिर्द था। इसी अवधि के दौरान भारतीय थिएटर में कालिदास, पतंजलि, भास और शूद्रक जैसे नाटककारों द्वारा श्रेष्‍ठ कृतियों का सृजन हुआ, जिन्‍होंने संस्‍कृत नाटक को गौरवान्वित करने में बहुत अधिक योगदान दिया। नाटककार अपनी योजना तैयार किए, अधिकाशंत: उन कहानियों पर आधारित थे, जिन्‍हें उन्‍होंने महाकाव्‍य लोक गीत, इतिहास, पौराणिक गाथा आदि से लिया था। इससे दर्शकों के लिए नाटक को समझना आसान हो गया जिन्‍होंने उन क‍हानियों का सृजनात्‍मक प्रस्‍तुतीकरण देखने के लिए भाग लिया जिनसे वे पहले से ही परिचित थे। अभिनेताओं को कला रूप में बड़े कौशल होने की आवश्‍यकता थी ताकि ऐसे नाटकों से दर्शकों को आह्लादित कर सकें।

आधुनिक अवधि

आधुनिक अवधि में ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय नाट्य कला के साथ पश्चिमी नाट्य कला के साथ मेल-जोल दिखाई पड़ा और एक ऐसी नाट्य कला का विकास आरंभ हुआ जिसका आधार जीवन के वास्‍तविक या प्राकृतिक तत्‍व थे। आधुनिक नाट्य कला ने व्‍यावहारिक मुद्दों पर अधिक ध्‍यान देकर जीवन के अधिक प्राकृतिक तत्‍वों का चित्रण आरंभ किया।

भारत में नाट्य कला तीन अवधियों में विभिन्‍न चित्रण और विकास हुआ और क्रमश: वर्तमान समय के समकालीन नाटक का मार्ग प्रशस्‍त हुआ। विभिन्‍न राष्‍ट्रीय संस्‍थाओं और अकादमियों ने आगे आकर भारत में नाटक को प्रोत्‍साहन दिया, जो अब विश्‍व विख्‍यात कलाकारों को आगे लाई, जिन्‍हें अंतरराष्‍ट्रीय परिदृश्‍य में अनेक पुरस्‍कार और सम्‍मान मिले हैं।

आप का पार्थ

Sunday, March 28, 2010

अमिताभ बच्चन इन Pune

आज मैं वृंदा नगर गया ..जी हाँ पुणे मैं हैं....वहां पर मराठी साहित्य सम्मेलन हो रहा था....आज के अतिथी थे श्री अमिताभ बच्चन ..जी हाँ वोह पुणे मैं ए..उनको देखने के लिए काफी भीड़ थी। मैं भी गया था ताकि उनके दर्शन हो जाये , उनको ने पुणे के बारे मैं काफी कुछ अच कहा के उनका पुणे से और मराठी भाषा से कितना लगाब है .उन्होंने उनके पिताः की कविताओ का पाठ किया .

पूल पर "पोलिटिक्स "

नमस्कार....आप सब को मेरा रंग नमन .उम्मीद है के आप सभी अछे होंगे !!! आज मैं आप से एक बात बोलना चाहता हूँ । कुछ दिनों पहले अमिताभ बच्चन ने मुंबई मैं एक पूल का उद्घाटन किया, यह काफी अची बात है के के मुंबई को एक और पूल का गौरब मिला । एस कायक्रम काफी लोग शामिल हुए , पर शायद कुछ लोगो को यह सही नहीं लगा के अमिताभ बच्चन वहां पर हैं। मैं किसी के बारे मैं नहीं कहना चाहता क्यूँ की मैं एक कलाकार हूँ और अमिताभ बच्चन एक नामी कलाकार है , क्या यह ज्यादा जरुरी है के पूल का उद्घाटन सही तरीके से हो या के अमिताभ बच्चन वहां क्यूँ आयें ? भाई भारत मैं सभी को रहने का कहें भे जाने का बराबर का अधिकार है ऐसे मैं अमिताभ बच्चन के जाने से ऐसा कोंन सा जुर्म हो गया ?? इस तरह के बातें न तो वहां के सरकार को शोभा देता है और न ही मीडिया को। किसे एक आदमी पर कई तरह के आरोप फिर उनसे माफ़ी ...येः सब क्या ठीक है ? आज के मीडिया एस तरह के बातों को २४ घंटे अपने चंनल मैं लाइव दिखा रहे हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा बिज़नस और विज्ञापन मिल सके .देश के पैसो से मेरा मतलब है के "जनता " के पैसो से जिस पूल का निर्माण होता है..उसका उद्घाटन किसी "आम आदमी " को ही करना चाहेए , काम करते हैं गरीब मजदूर और "शिलान्यंस " करते है देश के नेता और अभिनेता ।

Monday, March 22, 2010

चलना हमारा काम है

गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है ।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है ।

राम धरी सिंह दिनकर

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

Sunday, March 21, 2010

कोशिस करने वालो के.....

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

Wednesday, March 17, 2010

रामधारी सिंह "दिनकर "

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज बनता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।