Monday, February 28, 2011

Thursday, February 24, 2011

बहानेबाजी की हद

बहानेबाजी की हद इससे अधिक विचित्र और कुछ नहीं हो सकता कि केंद्रीय गृह मंत्रालय संसद पर हमले के मामले में मौत की सजा पाने वाले आतंकी अफजल की दया याचिका पर कुंडली मारे बैठा रहे और फिर भी गृहमंत्री चिदंबरम संसद में यह सफाई पेश करें कि उनके स्तर पर कोई देर नहीं हो रही है। क्या कोई यह बताएगा कि यदि गृहमंत्री मामले को नहीं लटकाए हैं तो वह कौन है जो इसके लिए उन्हें विवश कर रहा है? अफजल की दया याचिका पर राष्ट्रपति तो तब कोई फैसला लेंगी जब वह उनके सामने जाएगी। अफजल की दया याचिका जिस तरह पहले दिल्ली सरकार ने दबाई और अब गृह मंत्रालय दबाए हुए है उससे तो यह लगता है कि उसे फांसी की सजा से बचाने के लिए अतिरिक्त मेहनत की जा रही है? यह क्षुब्ध करने वाली स्थिति है कि एक ओर संकीर्ण राजनीतिक कारणों से आतंकी को मिली सजा पर अमल करने से जानबूझकर इंकार किया जा रहा है और दूसरी ओर देश को यह उपदेश दिया जा रहा है कि ऐसे मामलों में कोई समय सीमा नहीं? यह कुतर्क तब पेश किया जा रहा है जब उच्चतम न्यायालय की ओर से यह स्पष्ट किया जा चुका है कि सजा में अनावश्यक विलंब नहीं किया जाना चाहिए। आखिर जो सरकार अफजल सरीखे आतंकी को सजा देने में शर्म-संकोच से दबी जा रही है वह किस मुंह से यह कह सकती है कि उसमें अपने बलबूते आतंकवाद से लड़ने का साहस है? अफजल के मामले में केंद्रीय सत्ता जैसी निष्कि्रयता का परिचय दे रही है उससे न केवल इस धारणा पर मुहर लग रही है कि वह एक कमजोर-ढुलमुल सरकार है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी जगहंसाई भी हो रही है। भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभर रहा है जो देशद्रोही तत्वों से निपटने के बजाय तरह-तरह के बहाने बनाने में माहिर है। अफजल के मामले में पहले यह बहाना बनाया जा रहा था कि फांसी की सजा देने से उसे आतंकियों के बीच शहीद जैसा दर्जा मिल जाएगा। अब यह कहा जा रहा है कि ऐसे मामलों के निपटारे की कोई अवधि नहीं। यह लगभग तय है कि हाल-फिलहाल इस बहानेबाजी का अंत नहीं होने जा रहा है। इस पर भी आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि जिन नक्सलियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है उनके ही समक्ष उड़ीसा सरकार ने घुटने टेक दिए और केंद्र सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। यह वह स्थिति है जो देश के शत्रुओं का दुस्साहस बढ़ाएगी। अब इसका अंदेशा और बढ़ गया है कि मुंबई हमले के दौरान रंगे हाथ पकड़े गए हत्यारे कसाब को भी सजा देने में देर होगी। हालांकि अभी उसकी फांसी की सजा की पुष्टि उच्चतम न्यायालय से होना शेष है, लेकिन उसका मामला जिस तरह तमाम देरी से हाई कोर्ट तक पहुंचा है उससे यही संकेत मिलता है कि वह कुछ और समय तक जेल की रोटियां तोड़ता रहेगा और उसकी सुरक्षा में करोड़ों रुपये फूंके जाते रहेंगे। कसाब को सजा देने में हो रही देरी को लेकर भारतीय न्यायपालिका की महानता का जो बखान किया जा रहा है उसका कोई औचित्य नहीं। यह शर्मनाक है कि कोई भी इसके लिए तत्पर नजर नहीं आ रहा कि इस खूंखार आतंकी को जल्दी से जल्दी उसके किए की सजा मिले।

Monday, February 21, 2011

खेल गांव में उमड़ रही भीड़

भीड़ नहीं, उत्साह खेल गांव में हर दिन उमड़ रही भीड़ हतोत्साहित झारखंड में नई आशा का संचार है। जब कुछ अच्छा होता है तो उसका परिणाम इसी रूप में आता है। यह उत्साह खेल और खिलाडि़यों से अधिक उन आकर्षक ढांचों को देखने का है, जिनको झारखंड नामक उस राज्य ने तैयार कराया है, जिसकी हर क्षेत्र में नकारात्मक छवि बन चुकी है। इन ढांचों को विश्र्वस्तरीय करार दिया जा चुका है। सबसे बड़ी बात यह कि इन ढांचों को तीन-चार तरह के शासन ने तैयार कराया। इसके बावजूद निर्माण की गुणवत्ता बनी रही। यही विशेषता निर्दिष्ट कर रही है कि झारखंड में बहुत कुछ अच्छा होने की संभावनाएं बाकी हैं। पंचायत चुनाव के तत्काल बाद संपन्न हो रहे 34वें राष्ट्रीय खेलों से ही सही राज्य की दशा-दिशा बदले तो अभी बहुत बिगड़ा नहीं है। याद करें, जिस बिहार को कई मामलों में मानक माना जा रहा है, उसकी पांच वर्ष पहले कैसी स्थिति थी। बिहार और बिहारियों के नाम पर ही लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते थे, आज वही दिल्ली तक को आकर्षित कर रहा है। वह भी तब, जबकि वहां कृषि के अलावा अन्य क्षेत्रों में झारखंड जैसी संभावनाएं नहीं हैं। झारखंड में खान-खनिज, भांति-भांति के वनोत्पादों के अलावा कृषि प्रक्षेत्र में भी संभावनाएं हैं। अकेले पर्यटन क्षेत्र में काम कर दिया जाय तो कश्मीर की तरह स्वर्गोपम प्राकृतिक सुषमा का आनंद इस राज्य में भी मिलने लगे। इसका सीधा असर राज्य के राजस्व के साथ-साथ स्वरोजगार पर पड़ेगा। फिर तो इसकी छवि अपने आप निखरने लगेगी। राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के नाम जब एक छोटा सा काम शासन ने कर दिया तो खेल गांव को देखने के लिए पांच-साढ़े पांच लाख लोग उमड़ पड़े। इस भीड़ की उमंग को तरंगों में बदलने का अवसर शासन-प्रशासन के सामने मुंह बाए खड़ा है। यह भी अच्छा संयोग है कि ऐसे ही अवसर पर राज्य की प्राय: छह माह पुरानी सरकार को अपना बजट पेश करना है। और कुछ न भी हो, केवल वास्तविक बजट तैयार कर उस पर सुविचारित तरीके से काम किया जाय और अपनी 4,430 पंचायतों से पर्याप्त सहयोग लेकर काम किया जाय तो सबसे अधिक परेशान करने वाले मुट्ठी भर नक्सली निश्चय ही या तो मुख्य धारा में शरीक होने को बाध्य हो जाएंगे या फिर काबू में आ जाएंगे। खेल गांव में उमड़ रही भीड़ के उत्साह का यही संदेश है, यह बात शासन-प्रशासन भी तो समझता ही होगा।