लोकपाल पर केंद्र सरकार का रवैया किसी से छिपा नहीं। वह जनता के दबाव में लोकपाल विधेयक तैयार करने की हामी तो भर रही है, लेकिन अनिच्छा के साथ। अब यह भी स्पष्ट है कि वह एक समर्थ और प्रभावी लोकपाल बनाने से बचना चाहती है। विडंबना यह है कि ऐसा ही रवैया राज्य सरकारों का भी है। ज्यादातर राज्य सरकारों ने इस या उस बहाने लोकपाल पर राय देने से इंकार कर दिया। किसी ने वक्त की कमी का रोना रोया तो किसी को सलाह मांगने का केंद्र सरकार का तरीका रास नहीं आया। कुछ राज्यों ने यह कहकर छुट्टी पा ली कि लोकपाल विधेयक पर जब संसद में चर्चा होगी तब वे अपनी राय सार्वजनिक करेंगे। कुछ राज्य यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि यह सिर्फ केंद्र सरकार से जुड़ा मुद्दा है, जबकि तथ्य यह है कि जिस तरह केंद्र के स्तर पर लोकपाल बनना है उसी तरह राज्यों में भी लोकायुक्तों की तैनाती होनी है। यह आश्चर्यजनक है कि 28 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रांतों में से कुल 17 ने अपनी राय दी और उनमें से भी ज्यादातर ने आधे-अधूरे ढंग से। इससे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यह कि राज्य सरकारें देश की जनता को उद्वेलित करने वाले मुद्दे पर कितनी अगंभीर हैं। यह तब है जब आम जनता राज्य सरकारों की ओर से नियंत्रित प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से अधिक त्रस्त है। राज्य सरकारें इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकतीं कि आम आदमी को छोटे-छोटे काम कराने के लिए कदम-कदम पर रिश्वत देनी पड़ती है और उनके कई विभाग तो ऐसे हैं जहां घूस के रेट तय हैं। चूंकि कुछ विभागों की ओर से ली जाने वाली रिश्वत की रकम ऊपर तक जाने लगी है इसलिए रिश्वत के रेट बढ़ते जा रहे हैं। दरअसल इसी के चलते भारत भ्रष्ट देशों की सूची में शीर्ष पर बना हुआ है और दुनिया भर में अपनी बदनामी करा रहा है। इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार के बावजूद ज्यादातर राज्य सरकारें रिश्वतखोरी की संस्कृति को समाप्त करने के लिए कहीं कोई उपक्रम नहीं कर रही हैं। वे मध्य प्रदेश, बिहार आदि का अनुकरण करने के लिए भी तैयार नहीं जो आम आदमी को भ्रष्टाचार से बचाने के लिए लोक सेवा गारंटी अधिनियम लेकर आए हैं। राज्य सरकारें इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं कि बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण अब स्थिति यह है कि उनकी प्राथमिकता वाली योजनाएं भी सही ढंग से नहीं चल पा रही हैं। बात चाहे जनकल्याणकारी योजनाओं की हो अथवा विकास योजनाओं की-वे भ्रष्टाचार से जूझती रहती हैं। इस सबके बावजूद जिस तरह केंद्र सरकार प्रशासनिक सुधारों के मामले में हाथ पर हाथ धरे बैठी है उसी तरह राज्य सरकारें भी इस मोर्चे पर कुछ करने के लिए तैयार नहीं। राज्य सरकारें न तो खुद जवाबदेही के दायरे में आना चाहती हैं और न ही अपने प्रशासनिक तंत्र को जवाबदेह बनाना चाहती हैं। सच तो यह है कि ज्यादातर राज्य सरकारें हर उस पहल की अनदेखी करती हैं जो प्रशासनिक तंत्र को जवाबदेह और पारदर्शी बनाने में सहायक होती है। यह किसी से छिपा नहीं कि सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद अधिकांश राज्य सरकारों ने किस तरह सूचना आयुक्तों और सूचना अधिकारियों की तैनाती में हीलाहवाली का परिचय दिया था। लोकपाल और लोकायुक्त के मुद्दों पर राज्य सरकारों के गैर जिम्मेदार रवैये को देखते हुए यह और अधिक आवश्यक हो जाता है कि भ्रष्टाचार का जो मुद्दा अभी केंद्र सरकार तक सीमित है उसे राज्य सरकारों के स्तर पर भी ले जाया जाए।