भारत की जनता के साथ लोकपाल पर धोखाधड़ी ,लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति के बीच यकायक उभरे मतभेद यदि कुछ स्पष्ट कर रहे हैं तो यही कि केंद्र सरकार के इरादे नेक नहीं हैं। इस समिति में शामिल सरकारी पक्ष जिस तरह इस पर जोर दे रहा है कि न तो प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए, न सांसदों के संसद में किए गए आचरण को और न ही वरिष्ठ नौकरशाहों को उससे तो ऐसा लगता है कि देश के साथ या तो छल किया जा रहा है या फिर भद्दा मजाक? ध्यान रहे कि लोकपाल से न्यायाधीशों को बाहर रखने की दलील इस आधार पर पहले से ही दी जा रही है कि उनके लिए न्यायिक जवाबदेही विधेयक लाया जा रहा है। तथ्य यह है कि यह आश्वासन संप्रग सरकार के पिछले कार्यकाल से दिया जा रहा है और बावजूद इसके हाल-फिलहाल इस विधेयक के पारित होने के आसार उतने ही दुर्बल हैं जितने दो वर्ष पहले थे। यदि केंद्र सरकार को केवल चंद कनिष्ठ अधिकारियों को ही लोकपाल के दायरे में लाना है और वह भी सीबीआइ को स्वायत्तता दिए गए बगैर तो फिर बेहतर होगा कि सरकार लोकपाल व्यवस्था के निर्माण के संदर्भ में झूठी दिलासा न दे। कागजी शेर सरीखे लोकपाल का कहीं कोई मूल्य-महत्व नहीं। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि यह वही सरकार है जिसने अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद देश को यह समझाने की कोशिश की थी वह भ्रष्टाचार से लड़ने और इसके लिए एक सक्षम लोकपाल बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। आखिर इस प्रतिबद्धता का लोप क्यों हो गया? क्या इसलिए कि सरकार की ऐसी कोई मंशा ही नहीं थी? अब तो इस पर भी संदेह हो रहा है कि केंद्र सरकार ने अन्ना हजारे और उनके साथियों के साथ लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने की पहल उनके आंदोलन को निष्प्रभावी बनाने और जनता का ध्यान बंटाने के लिए ही की थी। यह निकृष्ट राजनीति का एक और नमूना ही है कि जो सरकार कल तक सक्षम लोकपाल बनाने पर सहमति दिखा रही थी वह यकायक इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों को चिट्ठी लिखकर यह पूछने जा रही है कि क्या प्रधानमंत्री, शीर्ष न्यायपालिका और संसद के भीतर सांसदों के कार्यो को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए? आखिर यह कार्य अभी तक क्यों नहीं किया गया? निश्चित रूप से प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में रखने पर विचार-विमर्श हो सकता है, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि अन्य न्यायाधीशों, संसद के भीतर सांसदों के कार्यो और वरिष्ठ नौकरशाहों को भी पारदर्शिता व जवाबदेही से मुक्त रखा जाए। यदि यही सब करना है तो फिर भ्रष्टाचार से लड़ने की बड़ी-बड़ी बातें क्यों की जा रही हैं? इस पर आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार ने जैसा रवैया लोकपाल विधेयक के मामले में अपना लिया है वैसा ही काले धन के संदर्भ में भी प्रदर्शित कर रही है। काले धन के खिलाफ राष्ट्रव्यापी चेतना जागृत कर रहे बाबा रामदेव के सत्याग्रह का समय जैसे-जैसे करीब आता जा रहा है, सरकार वैसे-वैसे यह दिखावा करने में लगी हुई है कि इस मुद्दे को लेकर वह गंभीर है। जिस तरह बाबा रामदेव को सत्याग्रह न करने के लिए मनाने की कोशिश शुरू कर दी गई है उसे केंद्र सरकार की एक और चालबाजी कहा जाएगा। केंद्र सरकार के ऐसे रवैये को देखते हुए यह और आवश्यक हो जाता है कि बाबा रामदेव अपना संघर्ष जारी रखें और देश उनके पीछे उसी तरह एकजुट होकर खड़ा हो जैसा कि वह अन्ना हजारे के आंदोलन के वक्त खड़ा हुआ था।अब आम जनता को अपने कीमती समय से कुछ समय देश के लिए निकल न ही होगा .
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