Thursday, December 23, 2010

प्याज की पहेली !!!

प्याज की पहेली यह अच्छी बात है कि आम जनता की तरह प्रधानमंत्री भी इससे हैरान हैं कि प्याज के भाव अचानक आसमान क्यों छूने लगे, लेकिन इसमें संदेह है कि उनके कार्यालय की ओर से कृषि और खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय को चिट्ठी लिखने भर से बात बनने वाली है। चूंकि महज दो-चार दिन में प्याज के भाव दोगुने होने का कोई तर्कसंगत कारण नजर नहीं आता इसलिए सरकार को कम से कम यह तो बताना ही चाहिए कि प्याज यकायक आम जनता की पहुंच से दूर कैसे हो गया? अभी तो यही समझना मुश्किल है कि प्याज की किल्लत क्यों पैदा हुई, क्योंकि एक ओर जहां कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार यह कह रहे हैं कि फसल खराब होने से यह समस्या आई है वहीं दूसरी ओर सरकार में ही कुछ लोग इसके लिए जमाखोरों को जिम्मेदार मान रहे हैं। स्पष्ट है कि अभी यह तय नहीं कि प्याज के दाम किन कारणों से आसमान छू रहे हैं। आखिर जो सरकार किसी समस्या के कारणों से ही परिचित न हो वह उसका समाधान कैसे कर सकती है? यदि प्याज उत्पादन में अग्रणी नाशिक में बारिश के कारण 20 प्रतिशत फसल खराब हो गई थी तो भी इतने मात्र से उसके दाम एक सप्ताह मेंदोगुना कैसे हो सकते हैं? ऐसा तो तभी हो सकता है जब जमाखोरों को यह संकेत दिया गया हो कि उनके लिए कमाई करने का समय आ गया है। क्या यह लज्जाजनक नहीं कि केंद्र सरकार की नाक के नीचे यानी दिल्ली में प्याज की जमाखोरी की गई है? आखिर कृषि के साथ-साथ खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय संभालने वाले शरद पवार किस मर्ज की दवा हैं? प्याज की फसल खराब होने से परिचित होने के बावजूद उन्होंने इसके लिए कोई प्रयास क्यों नहीं किए कि उसकी आपूर्ति प्रभावित न होने पाए? यदि एक साथ दो मंत्रालय संभालने वाले शरद पवार को जनता की परवाह ही नहीं तो फिर उन्हें केंद्रीय मंत्रिपरिषद में क्यों होना चाहिए? क्या कारण है कि उनकी अनिच्छा के बावजूद खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय उनके पास बना हुआ है? इस पर आश्चर्य नहीं कि प्याज के दामों में अप्रत्याशित तेजी के पीछे कोई घपला-घोटाला हो। शरद पवार ने जिस तरह प्याज के दामों पर शीघ्र काबू पाने का आश्वासन देने के बजाय यह कहा कि हालात सामान्य होने में तीन हफ्ते लग जाएंगे उससे तो यह लगता है कि उन्हें या तो प्याज के व्यापारियों की फिक्र है या फिर उसकी जमाखोरी करने वालों की? जब जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों और विशेष रूप से केंद्रीय मंत्रियों से यह अपेक्षित है कि वे आने वाली समस्या को समय रहते भांपकर ऐहतियाती कदम उठाएं तब खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री के रूप में शरद पवार उलटा काम कर रहे हैं। प्याज का संकट महज एक फसल की किल्लत ही नहीं है, बल्कि यह खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता की नाकामी और एक तरह के जनविरोधी आचरण का एक और उदाहरण है। ध्यान रहे कि ऐसा ही नाकारापन तब दिखाया गया था जब चीनी के दाम बेकाबू हो रहे थे। प्याज का संकट यदि कुछ बयान कर रहा है तो यह कि संप्रग सरकार से महंगाई पर लगाम लगाने की अपेक्षा रखना व्यर्थ है। वैसे भी ऐसा कुछ होता नजर नहीं आता।

Monday, September 6, 2010

शर्मनाक खेल क्रिकेट

शर्मनाक खेल क्रिकेट में मैच फिक्सिंग से बड़ी बीमारी के रूप में उभरी स्पॉट फिक्सिंग को लेकर सामने आए एक अन्य खुलासे के बाद यह खेल और अधिक दागदार नजर आने लगा है। हालांकि स्पॉट फिक्सिंग करने वाले पाकिस्तानी क्रिकेटर खुद को पाक-साफ बताने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन एक तो वे पैसे के लेन-देन में लिप्त पाए गए हैं और दूसरे उनकी विश्वसनीयता इतनी गिर चुकी है कि कोई भी उन पर यकीन करने वाला नहीं है। जिस तरह पाकिस्तानी क्रिकेटरों की सफाई पर भरोसा करना मुश्किल है उसी तरह वहां के क्रिकेट बोर्ड के अधिकारियों पर भी। पाकिस्तान क्रिकेट अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए जूझ रहा है, लेकिन वहां के क्रिकेट बोर्ड के अधिकारी इस जुगत में लगे हैं कि कैसे स्पॉट फिक्सिंग के इस पूरे मामले को पाकिस्तान के खिलाफ साजिश करार दिया जा सके। कहीं यह इसलिए तो नहीं हो रहा कि क्रिकेट के इस शर्मनाक खेल में किसी न किसी स्तर पर वे स्वयं भी शामिल हैं? वैसे भी यह सहज नहीं जान पड़ता कि किसी क्रिकेट टीम के सदस्य स्पॉट फिक्सिंग करने और मैच हारने में जुटे रहें और टीम प्रबंधन को इसकी भनक तक न लगे। एक तरह से यह असंभव सी बात है। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अधिकारियों ने स्पॉट फिक्सिंग को लेकर जिस तरह दूसरों को दोषी बताने की कोशिश की उससे तो यह लगता है कि इस देश ने अपनी हर समस्या के लिए औरों को जिम्मेदार ठहराने की नीति अपना ली है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद की भ्रष्टाचार निरोधक इकाई क्रिकेट में भूचाल लाने वाले स्पॉट फिक्सिंग के इस मामले की जांच शुरू कर रही है और जांच होने तक तीन क्रिकेटरों को निलंबित कर एक तरह से अप्रत्याशित सख्ती का परिचय दिया गया है, लेकिन इस सबके बावजूद यह कहना कठिन है कि वह क्रिकेटरों और सट्टेबाजों की साठगांठ को ध्वस्त करने में सफल साबित होगी। इसके लिए उसे न केवल और अधिक सख्ती का परिचय देना होगा, बल्कि कठोर नियम-कानून भी बनाने होंगे। इन नियम-कानूनों के दायरे में क्रिकेटरों के साथ-साथ टीमों के प्रबंध तंत्र को भी शामिल करना होगा। आईसीसी को इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि वह फुटबाल की सर्वोच्च संस्था फीफा के समान क्रिकेट की निगरानी और नियमन क्यों नहीं कर पा रही है? यह एक तथ्य है कि आईसीसी और विभिन्न देशों के क्रिकेट बोर्ड इस खेल में घर कर गई बुराइयों को दूर करने में असफल ही अधिक हैं। इस खेल में जैसे-जैसे पैसा आता जा रहा है, भ्रष्टाचार की जड़ें गहराती जा रही हैं। यदि क्रिकेट की लोकप्रियता और उसका मान-सम्मान बनाए रखना है तो सभी देशों के क्रिकेट प्रशासकों को एकजुट होकर ऐसी कोई व्यवस्था करनी होगी जिससे यह अद्भुत खेल सट्टेबाजों के हाथों का खिलौना न बनने पाए। क्रिकेट प्रशासकों के साथ-साथ संबंधित देशों अर्थात क्रिकेट खेलने वाले देशों की सरकारों को भी चेतने की जरूरत है। यह सही है कि वे क्रिकेट प्रशासकों के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं, लेकिन उन्हें यह तो सुनिश्चित करना ही होगा कि किसी भी खेल से खिलवाड़ न होने पाए। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि क्रिकेट में किस्म-किस्म की सट्टेबाजी बढ़ती चली जा रही है और यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय माफिया सरगनाओं का हाथ है।

Sunday, August 29, 2010

अप्रवासी भारतीय


भारत सरकार अप्रवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार देकर उनके लिए चुनाव लड़ने का रास्ता भी साफ कर रही है। जो व्यक्ति मतदाता है वह चुनाव भी लड़ सकता है और सांसद बनने के बाद देश का प्रधानमंत्री भी बन सकता है, यह संवैधानिक व्यवस्था है। पिछले दिनों राज्यसभा में संप्रग सरकार ने जनप्रतिनिधित्व संशोधन-विधेयक पेश किया। इसके द्वारा जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 में संशोधन करते हुए अप्रवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार देने और इसके लिए प्रक्रिया निर्धारित करने की व्यवस्था की जाएगी। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने विधेयक पेश करते हुए बताया कि सरकार जनप्रतिनिधित्व संशोधन विधेयक 2006 को वापस ले रही है, क्योंकि इसमें अप्रवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार देने संबंधी पूरे नियमों तथा अन्य कुछ बातों का विवरण नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि नया कानून बनने के बाद दूसरे देशों में रहने वाले भारतीयों के नाम भी मतदाता सूची में दर्ज किए जाएंगे और उनके नाम उस जगह की मतदाता सूची में होंगे जिस निवास स्थान का पता उन्होंने अपने पासपोर्ट में दिया है। मतदाता सूचियों में उनके नाम दर्ज किए जाने की समय सीमा तय करने से पहले चुनाव आयोग से चर्चा के बाद स्थिति स्पष्ट की जाएगी। संसद में कानून मंत्री ने यह भी कहा है कि अप्रवासी भारतीय लंबे समय से मतदान के अधिकार की मांग कर रहे हैं। उनकी यह मांग उचित भी है और यह अधिकार देने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित होगी। 2006 में भी ऐसा ही विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया था, पर जब यह विधेयक संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए गया तब समिति ने विधेयक के प्रावधानों को मंजूर तो किया, मगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में कुछ और प्रावधान जोड़ते हुए विधेयक पेश करने का सुझाव भी दिया। अब यह स्पष्ट हो गया कि भारत सरकार संसद द्वारा पारित करवाकर अप्रवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार देने का मन बना चुकी है और यह भी स्पष्ट है कि यह लोग चुनाव भी लड़ेंगे और देश की संसद में पहुंचकर सत्ता के भागीदार भी होंगे। वैसे भी हम सब जानते हैं कि विदेशों में बसे बहुत से भारतीय चुनाव के दिनों में अपना प्रभाव और धन अपनी रुचि के राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों पर पूरे जोर-शोर से लगाते हैं। उनकी सोच भी सही होगी कि हम शासक बनाते हैं, शासक बन क्यों नहीं सकते? अपने देश में जहां चुनावों में धन-बल का प्रभुत्व है, वहां विदेशी धन के साथ जब यह अप्रवासी भारतीय चुनाव के महासमर में हिस्सा लेंगे तब धन की शक्ति और भी प्रबल हो जाएगी। सरकार के आंकड़े ही बताते हैं कि आज भी हमारी संसद में 360 से अधिक सदस्य करोड़पति हैं। वैसे भी क्या गारंटी है कि चुनाव जीतने के बाद यह प्रवासी प्रवासी न रहेंगे और देश में आकर उनकी सेवा करेंगे जिनके मतों से यह लोग संसद में पहुंच जाएंगे? आज भी तो देश में समस्या है कि विधानसभा और संसद के सदस्य बनने के बाद बहुत से सांसद और विधायक अपने चुनाव क्षेत्र में महीनों और वर्षाे तक नहीं जाते। देश और प्रदेशों की राजधानियों के सुखद आवासों में रहकर वे उन क्षेत्रों को भूल जाते हैं जहां सड़क नहीं, पीने को साफ पानी नहीं, जहां अन्न गोदामों में सड़ता है और लोग भूख से तड़प-तड़प कर प्राण देते हैं। प्रधानमंत्री, कानून मंत्री तथा सभी सांसदों से यही अपेक्षित है कि जिस समय विदेश में बसे भारतीयों को मतदान एवं चुनाव लड़ने का अधिकार दिया जाए उसके साथ ही यह भी व्यवस्था की जाए कि भारत में रहने वाले अथवा अप्रवासी भारतीय जो भी सांसद बनें वे अपने चुनाव क्षेत्र में एक निश्चित समय तक रहेंगे और जब तक उस क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं तब तक अपना स्थायी निवास भी उन्हीं गली-बाजारों में रखेंगे। अपने देश के कुछ सांसदों और कुछ राजनीतिक पार्टियों ने अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के लिए जिस तरह का दृश्य संसद में प्रस्तुत किया है उससे भी सांसदों का सम्मान घटा है। वेतन भत्तों के लिए तथा अन्य सुख सुविधाएं प्राप्त करने के लिए जो दृश्य संसद में सांसदों ने दिखाया उससे ऐसा लगा कि सड़क पर नारे लगाकर वेतन वृद्धि मांगने वाले मजदूरों और कनिष्ठ कर्मचारियों के आंदोलन में तथा सांसदों के आंदोलन में कोई अंतर नहीं। अंतर यह है कि संसद में शोर मचाने वालों को हजारों रुपये वेतन और दैनिक भत्ते के रूप में मिल जाते हैं, पर सड़क पर खड़े होकर आंदोलन करने वालों को लाठियां मिलती हैं।

Thursday, August 12, 2010

Friday, July 30, 2010

Tuesday, July 27, 2010

देश का क्या हाल है ..


आज दिन भर काफी बारिश हुई यहाँ ...सारा दिन टीवी मैं समाचार देखता रहा.सोचता रहा मेरे देश के बारे मैं जी हाँ मेरे देश के बारे मैं....क्यूँ के मुझ को लगता है की आप सब तो यहाँ पर मेहमान है , आप को पता तो होता के मेरे घर मैं आप को खिलने के लिए खाना है भी या नहीं ??? क्यूँ की ऐसा तो सिर्फ मेहमान ही करते हैं उसको सिर्फ अपनी मेहमान नजाज़ी से हे मतलब रहता है...क्यूँ कोई नहीं सोचता इस देश के बारे मैं ? आज़ादी से पहले तो हम ऐसे नहीं थे ? तो आज हम कहलाने को भारतीय क्यूँ है ?? मैंने दो लाइन लिखा है ......

देश का क्या हाल है....
हल तो बेहाल है
हर तरफ खुशियों मैं भी
कर रही सवाल है॥

थालिओं रोटियां भी
कर रही बवाल है
देश का क्या हाल है॥

गेहूंयों की बोरियां
पड़ी यहाँ ..पड़ी वहां।
सड़ रहीं गेहूं मैं
बढ रहा सवाल है..बवाल है।

सब यहं गरीब है, सब वहां आमिर है
देख कर नया तमाशा
वह दे रहे ताल है
देश का क्या हाल है
हल तो बेहाल है

खेल पर खर्च वहां
पांच हज़ार करोड़ है
पर यहाँ भूक से पेट मे
मरोर है पेट मैं मरोर है।

हर समय भूक पर
उठ रहे सवाल है
देश तो बेहाल है
भूक से महंगाई से
देश तो बेहाल
हर कोई यहाँ कर रहा
सवाल है सवाल है॥
कोन यहाँ आमिर है
कोन यहं गरीब है
जो यहाँ दबंग है
वह यहाँ पे वीर है ....

आप का- पार्थ

देश आज कर रहा सवाल है...


आज दिन भर काफी बारिश हुई यहाँ ...सारा दिन टीवी मैं समाचार देखता रहा.सोचता रहा मेरे देश के बारे मैं जी हाँ मेरे देश के बारे मैं....क्यूँ के मुझ को लगता है की आप सब तो यहाँ पर मेहमान है , आप को पता तो होता के मेरे घर मैं आप को खिलने के लिए खाना है भी या नहीं ??? क्यूँ की ऐसा तो सिर्फ मेहमान ही करते हैं उसको सिर्फ अपनी मेहमान नजाज़ी से हे मतलब रहता है...क्यूँ कोई नहीं सोचता इस देश के बारे मैं ? आज़ादी से पहले तो हम ऐसे नहीं थे ? तो आज हम कहलाने को भारतीय क्यूँ है ?? मैंने दो लाइन लिखा है ......

देश का क्या हाल है....
हल तो बेहाल है
हर तरफ खुशियों मैं भी
कर रही सवाल है॥

थालिओं रोटियां भी
कर रही बवाल है
देश का क्या हल है॥

गेहूंयों की बोरियां
पड़ी यहाँ ..पड़ी वहां।
सड़ रहीं गेहूं मैं
बढ रहा सवाल है..बवाल है।

सब यहं गरीब है, सब वहां आमिर है
देख कर नया तमाशा
वह दे रहे ताल है
देश का क्या हल है
हल तो बेहाल है

खेल पर खर्च वहां
पांच हज़ार करोड़ है
पर यहाँ भूक से पेट मे
मरोर है पेट मैं मरोर है।

हर समय भूक पर
उठ रहे सवाल है
देश तो बेहाल है
भूक से महंगाई से
देश तो बेहाल
हर कोई यहाँ कर रहा
सवाल है सवाल है॥
कोन यहाँ आमिर है
कोन यहं गरीब है
जो यहाँ दबंग है
वह यहाँ पे वीर है ....

आप का- पार्थ

Friday, July 23, 2010

इन पत्थरों से बनवाकर घर अपना..खुद को खुदा महसूस करते हैं...
चाह कर भी रोक नहीं पाते इन मासूमों के जुल्म को ....
दिल खुद का हम पत्थर सा बनालेते हैं .......
ऐसा हम कैसे कर सकते हैं ????

आप का - पार्थ

Tuesday, July 20, 2010

Child labor is a very complicated development issue, effecting human society all over the world. It is a matter of grave concern that children are not receiving the education and leisure which is important for their growing years, because they are sucked into commercial and laborious activities which is meant for people beyond their years. According to the statistics given by ILO and other official agencies 73 million children between 10 to 14 years of age re employed in economic activities all over the world. The figure translates into 13.2 of all children between 10 to 14 being subjected to child labor.
Child labour is also prevalent in rich and industrialized countries, although less compared to poor nations. For example there are a large of children working for pay at home, in seasonal cycles, for street trade and small workshops in Southern Europe. India is a glaring example of a nation hounded by the evil of child labor. It is estimated that there are 60 to 115 million working children in India- which was the highest in 1996 according to human rights watch.

-पार्थ

यह कैसा इंसाफ ...


इसे आप क्या कहें गे ...जिन हाथों मैं कलम , किताब होनी थी वह हाथ मेहनत मजदूरी कर रही हैं....क्या भारत के लोगो के खून ठन्डे और दिल से रहम ख़तम हो गया है ??? देश मैं कई संथान काम कर रही हैं बच्चों के लिए , तब फिर यह तस्बीर क्या कह रही है आप से हम से ??

- आप का " पार्थ "

Saturday, April 24, 2010

A STORY OF POSITIVE ATTITUDE

Father: "I want you to marry a girl of my choice"
Son: "I will choose my own bride!"
Father: "But the girl is Bill Gates's daughter."
Son: "Well, in that case...ok"

Next - Father approaches Bill Gates.
Father: "I have a husband for your daughter."
Bill Gates: "But my daughter is too young to marry!"
Father: "But this young man is a vice-president of the World Bank."
Bill Gates: "Ah, in that case...ok"

Finally Father goes to see the president of the World Bank.
Father: "I have a young man to be recommended as a vice-president.”
President: "But I already have more vice- presidents than I need!"
Father: "But this young man is Bill Gates's son-in-law."
President: "Ah, in that case...ok"

This is how business is done!!
This is how business is done!!Moral: Even If you have nothing, you can get anything. But your attitude should be positive

Saturday, April 10, 2010

Street theatre as a form of communication is deeply rooted in the Indian tradition. In recent times this form has been used to propagate social and political messages and to create an awareness amongst the masses regarding critical issues. Street theatre breaks the formal barriers and approaches the people directly.
You could meet them in the most unexpected places – behind the vegetable complex in your market place, during your evening walk, at the bus stop or perhaps even on the street in front of your office- a group of people, acting out a short skit or play, for any one who might wish to stop and watch. They are not just philanthropists providing free entertainment. For them this is a means of reaching people of all strata and creating an awareness of events around them, calling them to change what they believe are the social ailments. These are the street theatre ‘activists.’
Street theatre is a situation where the audience has not come prepared to watch a play, and people may not have much time on hand. These limitations determine the parameteres of the plays. They are short. The exchange is close, direct and intimate and, to be more effective, usually loud and larger than life. The script and direction is always significant. In order to draw crowds from all walks of life, the plays are humorous. Songs based on popular catchy tunes are included to add to is appeal. The choreography of the play varies from script to script. The play must be as inexpensive and mobile as possible, since no stage props can be used. As Badal Sircar the noted playwright sums up, “the essential tool of the trade is the human body. The potentially of the human body, the ability to throw one’s voice so that 4000 people can be reached without the aid of a mike, must be explored.”
Tracing the need for the development of this form of communication which is sometimes referred to as the third theatre, Badal Sircar analysed the two existing forms- the sophisticated urban theatre borrowed from the British and rooted in western culture and values and the traditional rural theatre. “In spite of the tremendous popularity of folk theatre in rural areas, the ideas and values it dealt with remained backward….whereas the city theatre could propagate progressive ideas and values to a sophisticated audience which would be mentally stimulated at best but would not or could not act upon them.” So arose the need for a means of communication which would break barriers of stage and ticketed entries.
It would however be wrong to claim that street theatre is a new form- the content and style perhaps are- but snake charmers, bear and monkey dances on the street and also short dance and acrobatic sequences at fairs by trained performers are all forms of street theatre. But that is professional theatre where the primary aim is to get money from the show.
Apart from propagating social reform, street theatre is also a political weapon used during elections in particular or to get across an ideology। It has also been successfully utilised as a vehicle for inducing a scientific outlook in some people by bringing to them news from the world of science. Women have become an important theme for street plays. In 1980 the famous Mathura rape case instigated a lot of shows on the need to make the rape laws more stringent in 1980. “Om Swaha” dealing with demands for dowry resulting in harassment and sometimes death was a very effective street play. There have been several productions which give a short summary o the life of a woman in India and some have gone on to make the girl question her dependence, her need to get married and her ability to lead a full, purposeful life by herself. There have been several plays exposing the mechanism of black marketing and hoarding. Some talk of the use of political power for pressurizing people. Others highlight caste conflicts or ideas about hygiene and health. Street theatre is also used as a means to encourage literacy amongst villagers. One effective play on environment projected a beautiful relationship of trust and friendship between a little boy and a tree.
But do these plays bring about a change? According to Feisal Alkazi who teaches street theatre at the Jamia Millia University in Delhi, “If the communication has been worthwhile then there must be some tangible impact. What is important is that the plays make the people think. The play is seen by many people of different age groups who then question and discuss the contents of the play. This evocation of questioning is by itself an impact.” Alkazi recalled an interesting experience he had while travelling by a DTC (Delhi Transport Corporation) bus. He was very surprised to hear a passenger sing the words of a song from his street play based on a popular film tune. “At an unconscious level at least the message had got across.” He claims most street theatre groups have had members of the audience coming up to them for a discussion on the play they had just witnessed.
For Badal Sircar and his group the reward for their tireless efforts came in a different way. While touring the villages in Bengal they cam across audiences willing to sit through a performance in any kind of weather. He recalls one night when they performed through a continuous drizzle interspersed with heavy showers. So enraptured was the audience, that about 3000 people sat through the play for about three hours. Finally, when showers came down heavily Badal Sircar called it a day and begged leave of his audience. That they were interested enough to sit through the rain meant that the message was getting accros।
( sourse(Sourse from- E- Book )
Your - Parth

Tuesday, April 6, 2010

आज एक पुराने दोस्त ने,
दरवाजे मैं दस्तक दिया ,
दरवाजा खोला तो उसे
देख कर अचानक हे कह पड़ा ...
"आज रिहर्सल नहीं है "....
उसने कहा पार्थ मैं निखिल हूँ...
तुम्हारा दोस्त मेकेमन .....
जो नाटको मैं सब के चरित्र को
बदल देता था.....
मैं सहम गया , क्यूँ की मैं उन दिनों
मैं वापस चला गया था.....
जहाँ लोग नाटक को नाटक नाहे
"नौटंकी " कहते थे...
नाच गाना कहते थे....
पर हम उस ज़माने मैं भे नाटक किया
करते थे......
आज सब कुछ बदल गया है...
हाथो मैं ताली के जगह रिमोट
हो गया है ...हमारा
रंगमंच लोगो की बेडरूम
मै हो गया है........
पर मैं काल भे निर्देशक था
आज भी निर्देशक हूँ ....
तब मैं गली कुचो मैं नाटक
करवाता था, आज मैं प्रेक्षग्रिः
मैं नाटक करवाता हूँ.....
कल मुझे पैसे नहीं मिलते थे
पर आज पैसो के "लिए "नाटक करवाता हूं
कल मैं समाज को बदल ने का
काम करवट था...आज खुद हे समाज मैं
रह कर "बदल " रहा हूँ....
उस लिए her बार दरवाजा खोलते
हे मैं डार जाता हूँ.......

Friday, April 2, 2010

चुनोती एक इन्सान की....

Once a there lived a busy Doctor called Dr. Sam. He was busy not because of his skill as a Doctor but due to his talent in handling his patience. It was about 10:30 pm when Dr. Sam was about to leave his clinic. Suddenly a patient came running to the doctor’s room. Dr. Sam asked him what was his problem? The patient said - “Dr. Sam, I have a great regard for you. Now all I require is a straight forward answer for my question”. “What is you question?” asked Dr. Sam. He replied - “I wanted to know whether there is any place on earth where there are no challenges?” Dr. Sam asked him why he was asking it. The patient replied that he wanted to be in that place.

Dr. Sam said that it was too late and asked him to come to his house early in the morning by 7:00 am and he promised him that he would take him to the place. The patient went home and was wondering where the doctor would be taking him, the next day. He never slept for the night and was waiting for the sunrise. Then he visited the doctor’s residence by 7:00 am, where the doctor was waiting for him. Then both of them walked down to the nearest taxi stand and took a taxi.

It took about one hour of drive from the place and they reached the place. It was a big area with a high-raised walls and the entrance had a big gate. The patient was wondering and started thinking whether the Dr. Sam had gone mad or what? Yes, Dr. Sam had brought the patient to the cemetery. And Dr.Sam got down from the taxi and said - “from my experience, this is the only place without any challenges”

Your - Parth

Thursday, April 1, 2010

India`s multilingual aspects find a poetic articulation amidst Indian theatre. Diverse culture, varied religion and most importantly the multifariousnesses of Indian language has played a great role in shaping up India`s rich heritage and culture. The fusion of different Indian language and the union of varied Indian traditions from different region has enriched India`s ethnicity in quite a large way since the remote past. India, as a multilingual and multi religious state can not be allied with one particular kind of trend and aspect in its theatres and dramas. This is the reason why the deep fervor of Bengali theatre has gelled well with the passion of Hindi Manipuri, Kannada and Marathi theatre and has given birth to a whole new concept of "Indian theatre". It is right after the independence of India, Indian theatre in different Indian languages and regions developed as an important element in taking theatre to the further level of maturity.

Malayalam Theatre, Gujarati Theatre, Kannada Theatre all has its roots associated with the British rule as the seed of the contemporary drama in India was sown during that era. Bengali theatre started with an intention of private entertainment however gradually it became the weapon to illustrate the dislikes and frustration of the British imperialism in India. As an art form Bengali theatre has its roots associated with the British Raj. Although started as private entertainment in the early 19th century Bengali theatre gradually became not only an eminent art form but also started playing the major role in illustrating the discomforts of the British Raj in India. The year was 1947 and the day was 15th August.

The day is indeed a red letter day in the Indian history . It is the Independence Day. Not only India stood apart as a socially and politically sovereign state but also Indian culture, art, music, literature all witnessed a colossal change. Drama and theatre in India in different Indian languages and regions gradually became an art form to illustrate the social and political ailments of independent India. Right after the independence in India the leftist movement in West Bengal, used Bengali theatre as a typical means of advertisement or propaganda. Quite ideally therefore a new trend in Multi lingual & regional theatre gradually developed and the emergence of the group theatres is one of them. All these theatre groups carried somewhat an ideologic at the same time as distinct cultural inspiration to differentiate themselves from the typical artistry of the ancient Indian theatre.

Multi lingual & regional theatre in India can actually be classified into two distinct streams like the urban theatres and the rural theatres. This was even particularly common in the classical art form of the Marathi theatre and Hindi theatre. With the thriving development of the various Indian metropolis Marathi, Kannad and Hindi theatre developed in accord to the Bengali theatre. With the direct influence of the "Yakshagana" the ethnic dance drama of Karnataka which offered a distinct shape to the artistry of Marathi and Kannad drama in the late 19th century. This was the time when Indian drama witnessed the emergence of subtle contrivances and ploys, in illustrating a particular kind of idea. Multi lingual & regional theatre in India thus for the first time saw the materialization of allegorical fantasies in farcical comedies. Some more regional languages in which theatre later developed as an important element took this art form to further level of maturity. Sindhi Theatre,which further popularized the folk art again reshaped the contour of regional theatre in India. With the establishment of the Hyderabad Amateur Dramatic Society in 1912, the change in theme of Sindhi drama became evident. The society`s mainstay, Nanikram Mirchandani, introduced social realism in Sindhi theatre to aid it in befitting the modish aspect of the society. Konkani theatre, Kashmiri Theatre and also the Maithili Theatre witnessed a marked change. Maithili theatre spread to Assam and Nepal, producing a huge corpus of Maithili drama. Siddhi Narasinghadeva and Bhupatindra Malla were among the known playwrights in Nepal. At the end of the nineteenth century Parsi theatre and Ramlila reached Mithila, leading to the premature burial of Kirtaniya. Oriya Theatre blended a deep philosophical meaning with that with the religious fervor to make regional theatre in India to stand out with pride. Assamese Theatre, Dogri Theatre, Manipuri Theatre needs mention in shaping the structure of regional theatre in India. It is with the colors of Rajasthani Theatre, the verve of regional theatre in India gained a dimension. Rajasthani theatre as a popular theatre form was formed in the late nineteenth century. Nepali Theatre, Tamil Theatre, Telugu Theatre, and Urdu Theatre all aided in shaping the Indian regional theatre to a great extent

The journey of the Multi lingual & regional theatre in India thus unfolds the rich history of British Raj and the independence of India. It is the saga of a changing trend; the account of an altering pattern which made Indian theatre lot more contemporary with its entire sophistication and modishness.

Your - Parth Roy

Wednesday, March 31, 2010

The earliest extant one-act plays in India date back to Bhasa. He was the first known Indian dramatist, whose famous works include Madhyamavyayoga or `Vyayoga of the Middle One`, ending in gentle humour, and the remarkable Urubhanga or `Breaking of the Thigh` and Karnabhara or `Kama`s Burden`, both terminating in suffering and death, defying theoretical conventions. The Sanskrit theatre recognized several specific one-act forms like the vyayoga, bhana, vithi, and utsrishtikamka, but the regional traditions of religious or folk performances made no such distinction. Sporadic evidence exists of short compositions, generally comical, staged as a prelude to the main drama in the nineteenth century, but they remained a part of larger extravaganzas to please the audience.

Bharatendu Harishchandra`s Hindi satire Vaidiki himsa bimsa na bhavati or `Vedic Violence Is Not Violence` in 1873 was one of the earliest short plays to anticipate modern one-act drama. This powerful attack on ritualistic animal sacrifice inspired some of his followers to experiment with the genre but it did not emerge as a significant medium of expression till the third decade of the twentieth century. P. Sambandha Mudaliar is credited with writing the first Tamil one-act in 1906, constructed according to the Sanskrit model but criticizing the British judiciary, with special reference to the role of interpreters. After Rabindranath Tagore`s farcical skits during 1885-94 and brief verse dramas collected as Kahini or `Stories` in 1900, Manmatha Ray`s Muktirdak or `Call of Freedom` in 1923 was one of the first serious Bengali one-act plays, based on a Buddhist legend of love, passion, piety, and contentment, built through a quick succession of situations leading to an impressive denouement.

Around this time several writers, particularly in Gujarati and Marathi, began to show keen interest in the form. Parsi theatre had nursed it with care for long as an effective means of entertainment. But it`s finer possibilities were exploited by Batubhai Umarwadia during 1899-1950, who`s Matsyagandba in 1925 was a milestone in Gujarati theatre history. By the 1940s, one-act drama became very popular in Gujarati, largely due to the efforts of gifted authors like Yashwant Pandya during 1906-55 and Pranjeevan Pathak during 1898-1975. The ferment caused by them was sustained by Umashankar Joshi, Jayanti Dalal, and particularly C. C. Mehta and Shiv Kumar Joshi, among the most prolific composers of one-act plays. Like the short story, the genre developed quickly in all the languages, though it remained more or less marginalized on stage, because the theatres required a lengthy minimum time frame to attract customers. Thus, despite a paradoxical abundance in print, most mid-century examples are forgotten today. Indian writers did not fail to cope with the challenges of brevity and compactness, economy of expression, and fast movement that the one-act play demanded. Manmatha Ray, Ram Kumar Varma, usually hailed, as the father of Hindi one-act drama, Pudumaippittan in Tamil, and Anant Kanekar was the distinguished Marathi author.

Its quick proliferation after Independence was pardy prompted by the needs of literary magazines and partly by requests from amateur groups for short scripts, often preferably without female dramatis personae. The challenge frequently tempted the best playwrights to experiment with it, despite the absence of theatrical patronage. The Marathi dramatists M. G. Rangnekar and P. L. Deshpande produced their one-act plays on stage bunched in double or triple bills. This practice has been followed in other languages too, with limited success. Badal Sircar and Utpal Dutt in Bengali and Vijay Tendulkar in Marathi gave this still-minor genre some respectability.
Indian theatre has a history going back about 5000 years or more Infact, the very first book on drama, called the Natya Shahtra, was penned in India only, by Bharat Muni. As per the historians, the time when this book was written is estimated to fall between 2000 BC and 4th Century AD. Traditional Indian theater initiated as a narrative form with the elements like reciting, singing and dancing playing a crucial role in it. In the present times, there are many forms of theatre prevalent in India. The main ones are:

Folk Theatre
Since India consists of varied ethnic groups, each developed their own kind of traditional folk theatres, using the regional language for communication. These theaters are known by different names in different Indian states, like Jatra in Bengal, Orissa and Bihar, Tamasha in Maharashtra, Nautanki in Uttar Pradesh and so on. Here, the main protagonists are the narrator and a comedian. Loud music, dance, elaborate make-up, masks and chorus singing are the main traits of Indian folk theatre.

Ramlila / Ram Leela
Ramlila is an important form of folk theatre in India, based on the mythological story of a battle between Lord Rama and Demon Ravana. Its staging takes place at a number of places throughout India, once a year, and usually lasts for 10-12 days. The dialogues of this play are very outstanding and thus, it draws spectators in hordes. The staging of this style of theater evokes a festive ambience. Places like Ramnagar, Kumaoni, Varanasi and Chitrakoot are famous for their Ram Leela.

Puppetry
Puppetry, as a form of theatre in India, is very ancient and apart from entertainment, it also conveys useful messages to the spectators. The early puppet shows staged in India were mostly based on stories of famous Indian kings and heroes and at times, also a satire on the social and political milieu. Puppetry started taking in religious themes as well, after the introduction of shadow puppetry that were based on stories of Ramayana and Mahabharata. Other popular puppetry forms here are glove, rod, string, string-rod puppets.

Modern Theatre
The modern theatre in India comprises mainly of English, Hindi and Hinglish (comprising of a mix of Hindi and English dialogues) plays. English theatre was brought to India during the British rule and was watched mostly by art connoisseurs of the rich, upper class. This, however, changed after independence, as many Indians entered the fray and theatre slowly became open for common people too. Today, many English plays based on Shakespeare and other famous foreign authors are being staged. Hindi and Hinglish plays are quite popular too.

Tuesday, March 30, 2010

भारतीय रंग मंच

भारतीय थिएटर के प्रादुर्भाव का इतिहास पौराणिक कथा काल में हुआ जब भ्रष्‍टाचार और शक्ति के चंगुल से मानवता को मुक्‍त करने की आवश्‍यकता से ब्रहमा ने नाट्य शास्‍त्र या नाटक कला का सृजन किया और इसके अर्थभेद से विवेकपूर्ण भारत को आलोकित किया, जिसने बाद में कला रूप को अपने शिष्‍यों को सिखाया जिसे उसने पूरी दुनिया में फैलाया। इस प्रकार से अभिनय कला का एक सबसे पुरान रूप अस्तित्‍व में आया, जो असंख्‍य चरणों के जरिए दर्शकों के मन को आहलादित करने के लिए प्रबल रहा, जिन्‍होंने किसी नाटकीय अभिनय देखा है।

भारतीय थिएटर भारत की संस्‍कृतियों और परम्‍पराओं के बारे में बहुत कुछ बयान करता है, इसके त्‍यौहारों के रंग, और जन समूह का कोलाहल। भारत में थिएटर अभिनय व्‍याख्‍यात्‍मक शैली में शुरू हुआ जिसमें बहुत अधिक वर्णन गाने और नृत्‍य शामिल थे। इन सभी कला रूपों के संकलन के कारण ही थिएटर अभिनय और सृजनात्‍मक कला के सभी अन्‍य रूपों में अव्‍वल रहा। भारतीय थिएटर चूंकि ब्रहमा ने अपने आप दुनिया में सम्‍पन्‍न किया है, यह आरंभिक दिनों के दौरान देवताओं को समर्पित और सम्‍मानित करने की सतत यात्रा रहा है। बाद में नाटकीय के जटिल रूपों का विकास हुआ जो समकालीन थिएटर कहलाता है।

भारतीय थिएटर को मोटे तौर पर तीन विकास अवस्‍थाओं में विभाजित किया जा सकता है - प्राचीन काल, परम्‍परागत काल और आधुनिक काल ये अवस्‍था ने घटनाएं और घटनाक्रम निर्धारित किए हैं, जिन्‍होंने भारतीय थिएटर को संवारा है, जो आज प्रचलित है।

प्राचीन काल

इस काल में नाटक का संकेन्‍द्रण नाटक लिखने के कार्य के इर्द-गिर्द और रंगमंच अभिनय या नाटक प्रस्‍तुत करने की कला के इर्द-गिर्द था। इसी अवधि के दौरान भारतीय थिएटर में कालिदास, पतंजलि, भास और शूद्रक जैसे नाटककारों द्वारा श्रेष्‍ठ कृतियों का सृजन हुआ, जिन्‍होंने संस्‍कृत नाटक को गौरवान्वित करने में बहुत अधिक योगदान दिया। नाटककार अपनी योजना तैयार किए, अधिकाशंत: उन कहानियों पर आधारित थे, जिन्‍हें उन्‍होंने महाकाव्‍य लोक गीत, इतिहास, पौराणिक गाथा आदि से लिया था। इससे दर्शकों के लिए नाटक को समझना आसान हो गया जिन्‍होंने उन क‍हानियों का सृजनात्‍मक प्रस्‍तुतीकरण देखने के लिए भाग लिया जिनसे वे पहले से ही परिचित थे। अभिनेताओं को कला रूप में बड़े कौशल होने की आवश्‍यकता थी ताकि ऐसे नाटकों से दर्शकों को आह्लादित कर सकें।

आधुनिक अवधि

आधुनिक अवधि में ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय नाट्य कला के साथ पश्चिमी नाट्य कला के साथ मेल-जोल दिखाई पड़ा और एक ऐसी नाट्य कला का विकास आरंभ हुआ जिसका आधार जीवन के वास्‍तविक या प्राकृतिक तत्‍व थे। आधुनिक नाट्य कला ने व्‍यावहारिक मुद्दों पर अधिक ध्‍यान देकर जीवन के अधिक प्राकृतिक तत्‍वों का चित्रण आरंभ किया।

भारत में नाट्य कला तीन अवधियों में विभिन्‍न चित्रण और विकास हुआ और क्रमश: वर्तमान समय के समकालीन नाटक का मार्ग प्रशस्‍त हुआ। विभिन्‍न राष्‍ट्रीय संस्‍थाओं और अकादमियों ने आगे आकर भारत में नाटक को प्रोत्‍साहन दिया, जो अब विश्‍व विख्‍यात कलाकारों को आगे लाई, जिन्‍हें अंतरराष्‍ट्रीय परिदृश्‍य में अनेक पुरस्‍कार और सम्‍मान मिले हैं।

आप का पार्थ

Sunday, March 28, 2010

अमिताभ बच्चन इन Pune

आज मैं वृंदा नगर गया ..जी हाँ पुणे मैं हैं....वहां पर मराठी साहित्य सम्मेलन हो रहा था....आज के अतिथी थे श्री अमिताभ बच्चन ..जी हाँ वोह पुणे मैं ए..उनको देखने के लिए काफी भीड़ थी। मैं भी गया था ताकि उनके दर्शन हो जाये , उनको ने पुणे के बारे मैं काफी कुछ अच कहा के उनका पुणे से और मराठी भाषा से कितना लगाब है .उन्होंने उनके पिताः की कविताओ का पाठ किया .

पूल पर "पोलिटिक्स "

नमस्कार....आप सब को मेरा रंग नमन .उम्मीद है के आप सभी अछे होंगे !!! आज मैं आप से एक बात बोलना चाहता हूँ । कुछ दिनों पहले अमिताभ बच्चन ने मुंबई मैं एक पूल का उद्घाटन किया, यह काफी अची बात है के के मुंबई को एक और पूल का गौरब मिला । एस कायक्रम काफी लोग शामिल हुए , पर शायद कुछ लोगो को यह सही नहीं लगा के अमिताभ बच्चन वहां पर हैं। मैं किसी के बारे मैं नहीं कहना चाहता क्यूँ की मैं एक कलाकार हूँ और अमिताभ बच्चन एक नामी कलाकार है , क्या यह ज्यादा जरुरी है के पूल का उद्घाटन सही तरीके से हो या के अमिताभ बच्चन वहां क्यूँ आयें ? भाई भारत मैं सभी को रहने का कहें भे जाने का बराबर का अधिकार है ऐसे मैं अमिताभ बच्चन के जाने से ऐसा कोंन सा जुर्म हो गया ?? इस तरह के बातें न तो वहां के सरकार को शोभा देता है और न ही मीडिया को। किसे एक आदमी पर कई तरह के आरोप फिर उनसे माफ़ी ...येः सब क्या ठीक है ? आज के मीडिया एस तरह के बातों को २४ घंटे अपने चंनल मैं लाइव दिखा रहे हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा बिज़नस और विज्ञापन मिल सके .देश के पैसो से मेरा मतलब है के "जनता " के पैसो से जिस पूल का निर्माण होता है..उसका उद्घाटन किसी "आम आदमी " को ही करना चाहेए , काम करते हैं गरीब मजदूर और "शिलान्यंस " करते है देश के नेता और अभिनेता ।

Monday, March 22, 2010

चलना हमारा काम है

गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है ।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है ।

राम धरी सिंह दिनकर

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

Sunday, March 21, 2010

कोशिस करने वालो के.....

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

Wednesday, March 17, 2010

रामधारी सिंह "दिनकर "

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज बनता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

Saturday, March 13, 2010

कोई मातम न कोई रोना हुआ
मेरे जाने पर .......
वक़्त का पहिया चलता रहा
मेरे जाने पर........
गमो से छुटा नाता....यादों से हुई दोस्ती
मेरे जाने पर........
सुबह से हे पंछियों का जरी रहा उड़ना
मेरे जाने पर.......

के तस्वीर देख कर लोग याद करने लगे मुझे
किताबो और कहानियो मैं तलश ने लगे मुझे
किताबी के चंद लाइनओ मैं समेट कर रख दिया
दुनिया वालो ने .....
लोग भूल कर भी भुलान न सके मेरी बातें
मेरे जाने पर........

कभीं फूलो से गुफ्तगू हुआ करती थी मेरी ,
बे दर्द दुनिया वालो ने कुछ रंगीन फूल
तोड़ कर रख दिया मेरी kabra मैं
मेरे जाने पर......
कोई मातम न कोई रोना हुआ
मेरे जाने पर ......

Thursday, February 18, 2010

टीवी show

नमस्कार.....भगवन के कृपा से आप सभी अचें होंगे। मैं आज टीवी मैं एक शो देख रहा था....राहुल दुल्हनिया ले जैंगे....यकीं मनिया किसे भे मैंने एह शो ठेक नाहे है। अगर एक इन्सान अपने लिए दुल्हन धुंद रहा है तो उस्कोसरे देश के सामने एक तरह असभ्य के तरह ,नाचना, किस करना और न जाने क्या क्या....होता है सायद एस को पुरे परिवार क्व साथ देखना कितना अछा होगा ???? एस तरह के शो सिर्फ पैसा कमाने के लियें की जाती हैं .

Monday, February 15, 2010

Namaskar...maine aaj " my name is khan " dekha.....film ache they..main es film ko kafi ache filme nahe kaunga.Sharukh khan ne jo kirdar nibhaya woh kabil e tarif hai. Suru se lekar the end tak use kirdar main they shaerukh. Film ke script aur bhe ache ho sakte they...agar writer chate to us film main thodi aur bhe turning points de sakte they.Mujh ko film ka sub se acha drishaya laga Jab Rizwan Khan baad main fhase logo ke mada main jate hain.

Kajol ko dekh kar aisa nahe laga ke usne itne dino ke baad unki film main wapsi hui hai.

Mai to eh soch kar gaya ke sayad he wahan par kise ka virodh hoga ke Film mat dekho.par aap jo bhe kahen kuch mamuli se rannitik party aab film ko bhe nisana banae lage hain. Par hamara desh hamara kanoon chup hai.Jo bhe ho " Rishty Kya kya nahe sikhate hain....kabhe hansna to kabhe roona bhe sikhate hain.....!!!!! Subh Rattri...

Saturday, February 13, 2010