Thursday, October 27, 2011

Ravan Se Ra-1 Tak


Ramayan se lekar mera matlab film and tv se hai Sri.B.R.Chopra se lekar sharukh khan tak Ravan ke kai rrop dikhe ,par hindustan ke janta sayad kabhi kabhi samajh nahi pati ki kon sa Ravan ko burai ka Pratik mana jai...jo bhi ho..aaj maine Ra-1 (Ravan) dekhi puri tarah se technical film hai ,kafi mehnat ki gai hai aaisa dikhtahai..par Kahani aur pat katha main koi daam nahi hai, Abhinav Sinha technical soch to pass hai par film flop hai.

Ra-1 main Rajnikant ki entry ka koi matlab nahi banta hai par sharukh ki home production main bani hone ke karan mera matlam "Robot" se hai ki kahi na kahin bara bari karni ki kosis ki hai hai..yeh jata ne ki kosis ki gai hai ki robort se ache technicle film ho sakti hai..Rajnikant ki entry mahaj unke bhavnao ko thes na pahuchane ka tha.

Yeh film puri tarah se video game hai apke hamare bacchon ko jarur pasand aaige..sharukh khan agar aise he kuch film aur bana le to unka filmi graph niche jarur aaiga aisa main manta hun..supar hero ki jo kalpana ki gai hai woh puri filmi hai ek cartoon film ki hero ki tarah.Film 1 se2 week ke he mehman hai Cinema hall tatha mautiplex main...main sirf india ke baat kar raha hun oversease main es film ka nischit roop se busiess acha hoga es ki ummed ki ja sakte hai.

Ab Abhinav Sinha sayad eska sequence banae ki soceh par yeh unki nadani hogi.Film ki lagat kafi badi hai umeed hai ki red chilli ka paisa wapas ho jai.

Bhartiya darshak achi film ka intazar karte hai...par Ra-1 main director ne kafi ap shabd ka estamal karwaya hai...jo achi nahi hai...ek chota baccha "condom" ki baat karta hai ap soc sakte hai director ne kis haad tak technology ka estamal kiya hoga .

Hollywood ke film ki copy karna aur uske jaie film banae main farak hai.

gane koi khas nahi hai..

Soch apni apni hai ..yeh meri soch hai.

Friday, September 2, 2011

Arun Das dies at Janapanka village while fasting for Jan Lokpal


Attached here with the photogrphs of Sri Arun Das of Kamira village,District Boudh,Odisha,while on fast in near by Janapanka village since last two days supprting Anna ji’s movement expired on way to Burla Medical on dt.24/08/2011 at 8.30 am.May the departed soul rest in peace.Sri Arun Das can be seen in first photograph standing second from left,Indication(towel on right side soulder)He was a follower of Baba Ramdev, and it was Ramdev who made the announcement of his death. Also, Baba Ramdev’s organization made an announcement.I think the question here really is that why is this death not news, why was it announced by Baba Ramdev, then IAC on Facebook and Twitter and then silence? Why is there no confirmation or debunking by media? What really happened?I heards rumors that someone called Arun Das died an hour or two ago at Patna while fasting along with three others in support of Anna Hazare’s demand for Jan Lokpal. [earlier story was correct. Patna, not Ramlila]

From what I know, Arun Das was from Darbhanga, Bihar, fasting in support of Anna Hazare’s demand for Jan Lokpal at Ramlila Maidan Kargil Chowk, Patna for the Jan Lokpal bill along with his wife Asha Lata. He had also participated in the JP movement. Concern was first raised about his health this morning after his BP was found to be abnormally high. He died a few hours later. Details are still unclear.

The news was announced from the stage by Baba Ramdev at Ramlila Maidan, Has been updated to the IAC page and there are SMSs and tweets from various sources in Patna (of death) and Delhi (of announcement), but there is nothing in news media so far. To avoid confusion, I am collecting what I know here, till more reliable news can be found.Please note that some people are confusing this incident with that of the youth Dinesh Yadav who tried to immolate himself yesterday at Kisan Ghat। He suffered 80% burns and is battling for life at LNJP, but alive as far as we know। Dinesh Yadav was from Patna. Different people. (सौजन्य - http://aamjanata.com

Tuesday, August 23, 2011

280 लाख करोड़ का सवाल है.

दर्द होता रहा छटपटाते रहे, आईने॒से सदा चोट खाते रहे, वो वतन बेचकर मुस्कुराते रहे
हम वतन के लिए॒सिर कटाते रहे



280
लाख करोड़ का सवाल है ...
भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा"* ये कहना है स्विस बैंक के डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपये उनके स्विस बैंक में जमा है. ये रकम इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है.


या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है.

ऐसा भी कह सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60 साल तक ख़त्म ना हो. यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत नहीं है. जरा सोचिये ... हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को

लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2011 तक जारी है.


इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा.

मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़ लूटा है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में 280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है.

भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की कितना पैसा हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है.

हमे भ्रस्ट राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारीयों के खिलाफ जाने का पूर्ण अधिकार है.हाल ही में हुवे घोटालों का आप सभी को पता ही है - CWG घोटाला, २ जी स्पेक्ट्रुम घोटाला , आदर्श होउसिंग घोटाला ... और ना जाने कौन कौन से घोटाले अभी उजागर होने वाले है ........

आप लोग जोक्स फॉरवर्ड करते ही हो.

इसे भी इतना फॉरवर्ड करो की पूरा भारत इसे पढ़े ... और एक आन्दोलन बन जाये !!!!

Friday, July 22, 2011

वाह घोटाला वाह !!!!!



क्या हम सब को यह देख कर चुप रहना चहिये.अगर यह घोटाला हुआ है तो इसके लिए जिमेदार हम खुद है .क्या हो गया है हमारी आवाज़ को ? कहाँ गई वह आवाज़ जिसने हम को आज़ादी दिलाई थी ??? क्या हमारा खून ठंडा पड़ गया है ?? या हमको इसकी आदत हो गई है ?? सायद हम आपने आनेवाले समय को नहीं देख रहे है ......

Wednesday, June 15, 2011

लोकपाल बिल हाल !!!!



लोकपाल पर केंद्र सरकार का रवैया किसी से छिपा नहीं। वह जनता के दबाव में लोकपाल विधेयक तैयार करने की हामी तो भर रही है, लेकिन अनिच्छा के साथ। अब यह भी स्पष्ट है कि वह एक समर्थ और प्रभावी लोकपाल बनाने से बचना चाहती है। विडंबना यह है कि ऐसा ही रवैया राज्य सरकारों का भी है। ज्यादातर राज्य सरकारों ने इस या उस बहाने लोकपाल पर राय देने से इंकार कर दिया। किसी ने वक्त की कमी का रोना रोया तो किसी को सलाह मांगने का केंद्र सरकार का तरीका रास नहीं आया। कुछ राज्यों ने यह कहकर छुट्टी पा ली कि लोकपाल विधेयक पर जब संसद में चर्चा होगी तब वे अपनी राय सार्वजनिक करेंगे। कुछ राज्य यह प्रदर्शित कर रहे हैं कि यह सिर्फ केंद्र सरकार से जुड़ा मुद्दा है, जबकि तथ्य यह है कि जिस तरह केंद्र के स्तर पर लोकपाल बनना है उसी तरह राज्यों में भी लोकायुक्तों की तैनाती होनी है। यह आश्चर्यजनक है कि 28 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रांतों में से कुल 17 ने अपनी राय दी और उनमें से भी ज्यादातर ने आधे-अधूरे ढंग से। इससे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यह कि राज्य सरकारें देश की जनता को उद्वेलित करने वाले मुद्दे पर कितनी अगंभीर हैं। यह तब है जब आम जनता राज्य सरकारों की ओर से नियंत्रित प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार से अधिक त्रस्त है। राज्य सरकारें इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकतीं कि आम आदमी को छोटे-छोटे काम कराने के लिए कदम-कदम पर रिश्वत देनी पड़ती है और उनके कई विभाग तो ऐसे हैं जहां घूस के रेट तय हैं। चूंकि कुछ विभागों की ओर से ली जाने वाली रिश्वत की रकम ऊपर तक जाने लगी है इसलिए रिश्वत के रेट बढ़ते जा रहे हैं। दरअसल इसी के चलते भारत भ्रष्ट देशों की सूची में शीर्ष पर बना हुआ है और दुनिया भर में अपनी बदनामी करा रहा है। इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार के बावजूद ज्यादातर राज्य सरकारें रिश्वतखोरी की संस्कृति को समाप्त करने के लिए कहीं कोई उपक्रम नहीं कर रही हैं। वे मध्य प्रदेश, बिहार आदि का अनुकरण करने के लिए भी तैयार नहीं जो आम आदमी को भ्रष्टाचार से बचाने के लिए लोक सेवा गारंटी अधिनियम लेकर आए हैं। राज्य सरकारें इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं कि बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण अब स्थिति यह है कि उनकी प्राथमिकता वाली योजनाएं भी सही ढंग से नहीं चल पा रही हैं। बात चाहे जनकल्याणकारी योजनाओं की हो अथवा विकास योजनाओं की-वे भ्रष्टाचार से जूझती रहती हैं। इस सबके बावजूद जिस तरह केंद्र सरकार प्रशासनिक सुधारों के मामले में हाथ पर हाथ धरे बैठी है उसी तरह राज्य सरकारें भी इस मोर्चे पर कुछ करने के लिए तैयार नहीं। राज्य सरकारें न तो खुद जवाबदेही के दायरे में आना चाहती हैं और न ही अपने प्रशासनिक तंत्र को जवाबदेह बनाना चाहती हैं। सच तो यह है कि ज्यादातर राज्य सरकारें हर उस पहल की अनदेखी करती हैं जो प्रशासनिक तंत्र को जवाबदेह और पारदर्शी बनाने में सहायक होती है। यह किसी से छिपा नहीं कि सूचना अधिकार कानून लागू होने के बाद अधिकांश राज्य सरकारों ने किस तरह सूचना आयुक्तों और सूचना अधिकारियों की तैनाती में हीलाहवाली का परिचय दिया था। लोकपाल और लोकायुक्त के मुद्दों पर राज्य सरकारों के गैर जिम्मेदार रवैये को देखते हुए यह और अधिक आवश्यक हो जाता है कि भ्रष्टाचार का जो मुद्दा अभी केंद्र सरकार तक सीमित है उसे राज्य सरकारों के स्तर पर भी ले जाया जाए।

Wednesday, June 1, 2011

लोकपाल के लिए नाटक !!!



भारत की जनता के साथ लोकपाल पर धोखाधड़ी ,लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने वाली समिति के बीच यकायक उभरे मतभेद यदि कुछ स्पष्ट कर रहे हैं तो यही कि केंद्र सरकार के इरादे नेक नहीं हैं। इस समिति में शामिल सरकारी पक्ष जिस तरह इस पर जोर दे रहा है कि न तो प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए, न सांसदों के संसद में किए गए आचरण को और न ही वरिष्ठ नौकरशाहों को उससे तो ऐसा लगता है कि देश के साथ या तो छल किया जा रहा है या फिर भद्दा मजाक? ध्यान रहे कि लोकपाल से न्यायाधीशों को बाहर रखने की दलील इस आधार पर पहले से ही दी जा रही है कि उनके लिए न्यायिक जवाबदेही विधेयक लाया जा रहा है। तथ्य यह है कि यह आश्वासन संप्रग सरकार के पिछले कार्यकाल से दिया जा रहा है और बावजूद इसके हाल-फिलहाल इस विधेयक के पारित होने के आसार उतने ही दुर्बल हैं जितने दो वर्ष पहले थे। यदि केंद्र सरकार को केवल चंद कनिष्ठ अधिकारियों को ही लोकपाल के दायरे में लाना है और वह भी सीबीआइ को स्वायत्तता दिए गए बगैर तो फिर बेहतर होगा कि सरकार लोकपाल व्यवस्था के निर्माण के संदर्भ में झूठी दिलासा न दे। कागजी शेर सरीखे लोकपाल का कहीं कोई मूल्य-महत्व नहीं। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि यह वही सरकार है जिसने अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद देश को यह समझाने की कोशिश की थी वह भ्रष्टाचार से लड़ने और इसके लिए एक सक्षम लोकपाल बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। आखिर इस प्रतिबद्धता का लोप क्यों हो गया? क्या इसलिए कि सरकार की ऐसी कोई मंशा ही नहीं थी? अब तो इस पर भी संदेह हो रहा है कि केंद्र सरकार ने अन्ना हजारे और उनके साथियों के साथ लोकपाल विधेयक का मसौदा बनाने की पहल उनके आंदोलन को निष्प्रभावी बनाने और जनता का ध्यान बंटाने के लिए ही की थी। यह निकृष्ट राजनीति का एक और नमूना ही है कि जो सरकार कल तक सक्षम लोकपाल बनाने पर सहमति दिखा रही थी वह यकायक इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों को चिट्ठी लिखकर यह पूछने जा रही है कि क्या प्रधानमंत्री, शीर्ष न्यायपालिका और संसद के भीतर सांसदों के कार्यो को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए? आखिर यह कार्य अभी तक क्यों नहीं किया गया? निश्चित रूप से प्रधानमंत्री और प्रधान न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में रखने पर विचार-विमर्श हो सकता है, लेकिन इसका कोई औचित्य नहीं कि अन्य न्यायाधीशों, संसद के भीतर सांसदों के कार्यो और वरिष्ठ नौकरशाहों को भी पारदर्शिता व जवाबदेही से मुक्त रखा जाए। यदि यही सब करना है तो फिर भ्रष्टाचार से लड़ने की बड़ी-बड़ी बातें क्यों की जा रही हैं? इस पर आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार ने जैसा रवैया लोकपाल विधेयक के मामले में अपना लिया है वैसा ही काले धन के संदर्भ में भी प्रदर्शित कर रही है। काले धन के खिलाफ राष्ट्रव्यापी चेतना जागृत कर रहे बाबा रामदेव के सत्याग्रह का समय जैसे-जैसे करीब आता जा रहा है, सरकार वैसे-वैसे यह दिखावा करने में लगी हुई है कि इस मुद्दे को लेकर वह गंभीर है। जिस तरह बाबा रामदेव को सत्याग्रह न करने के लिए मनाने की कोशिश शुरू कर दी गई है उसे केंद्र सरकार की एक और चालबाजी कहा जाएगा। केंद्र सरकार के ऐसे रवैये को देखते हुए यह और आवश्यक हो जाता है कि बाबा रामदेव अपना संघर्ष जारी रखें और देश उनके पीछे उसी तरह एकजुट होकर खड़ा हो जैसा कि वह अन्ना हजारे के आंदोलन के वक्त खड़ा हुआ था।अब आम जनता को अपने कीमती समय से कुछ समय देश के लिए निकल न ही होगा .

Tuesday, May 10, 2011

" चेतना" का समय उच्चतम न्यायालय की इस कठोर टिप्पणी के बाद सरकारों को भी चेतना चाहिए और समाज को भी कि सम्मान की कथित रक्षा की खातिर की जाने वाली हत्याएं राष्ट्र के लिए कलंक हैं और इनके लिए जिम्मेदार लोगों को मौत की सजा दी जानी चाहिए। चूंकि खुद उच्चतम न्यायालय ने यह पाया है कि ऑनर किलिंग एक क्रूर, असभ्य और सामंती प्रथा है इसलिए समाज का चेतना आवश्यक है। ऐसी सामाजिक बुराइयां कठोर कानून का निर्माण करने मात्र से दूर होने वाली नहीं हैं। ऑनर किलिंग मामले के एक अभियुक्त को सुनाई गई आजीवन कारावास की सजा बरकरार रखते हुए उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले की प्रति सभी हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल, राज्यों के मुख्य सचिव, गृह सचिव और पुलिस महानिदेशकों को भेजने का निर्देश दिया है, लेकिन आखिर इस निर्णय और उसकी गंभीरता से समाज को कौन अवगत कराएगा? पिछले कुछ समय से ऑनर किलिंग को रोकने के लिए ठोस कानून बनाने की बातें हो रही हैं। तर्क यह दिया जा रहा है कि किसी प्रभावी कानून के अभाव में ऑनर किलिंग के दोषियों को दंडित करने में मुश्किल पेश आ रही है। यह तर्क समझ से परे है, क्योंकि हत्या तो हत्या है-फिर वह चाहे तथाकथित सम्मान की रक्षा के लिए की जाए या फिर अन्य किन्हीं कारणों से। यह भी समझ से परे है कि जब देश के कुछ हिस्सों में इस तरह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं तब फिर प्रभावी कानून बनाने में देरी क्यों हो रही है? ऑनर किलिंग के तहत होने वाली हत्याओं को रोकने के लिए जो कुछ भी संभव है वह तत्काल प्रभाव से किया जाना चाहिए, क्योंकि इस तरह की घटनाएं समाज और राष्ट्र की बदनामी का कारण बन रही हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में प्रति वर्ष एक बड़ी संख्या में प्रेमी जोड़ों अथवा विवाहित युगलों को विवाह संबंधी जातीय अथवा सामाजिक परंपराओं के उल्लंघन के आरोप में मार दिया जाता है। सबसे ज्यादा प्रताडि़त एक ही गोत्र में विवाह करने वाले युगल होते हैं। हालांकि न्यायपालिका विवाह के मामले में गोत्र को महत्व देने के लिए तैयार नहीं, लेकिन ग्रामीण समाज का एक वर्ग गोत्र के उल्लंघन को इतनी बड़ी बुराई मानता है कि विवाहित जोड़ों की हत्या करने में भी संकोच नहीं करता। यह आदिम युग की बर्बरता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। अपनी इच्छा से विवाह करने वाले युवक-युवतियों के निर्णय पर उनके घर-परिवार वालों को असहमति हो सकती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें हत्या करने की छूट मिल जाए। इस तरह की हत्याएं रोकने में शासन-प्रशासन के अतिरिक्त जातीय समूहों, पंचायतों, सामाजिक संगठनों का नेतृत्व करने वाले लोग महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वे कोई पहल करते नहीं दिखाई देते। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि राजनेता उनके दबाव में या तो उनका साथ देते हुए नजर आते हैं या फिर मौन रहना पसंद करते हैं। जब तक यह स्थिति दूर नहीं होती तब तक कथित सम्मान की रक्षा के नाम पर की जाने वाली हत्याओं के कलंक से समाज और राष्ट्र को छुटकारा मिलने वाला नहीं है।

Thursday, March 17, 2011

झारखंड की धुंधली तस्वीर

यह तो होना ही था जिन 34वें राष्ट्रीय खेलों के सफल आयोजन ने देश-दुनिया में झारखंड की धुंधली तस्वीर पर स्वच्छ बौछार डालते हुए थोड़ा चमकाया, उन्हीं राष्ट्रीय खेलों की तैयारी की पृष्ठभूमि यह भी उजागर करेगी कि आयोजकों ने कैसे-कैसे खेल किए। इस संदर्भ में निगरानी ब्यूरो द्वारा डाले जा रहे छापे सच्चे निष्कर्ष तक पहुंचे तो यह राज खुलने में देर न लगेगी कि कल तक फर्श पर पड़े लोग आज अर्श पर कैसे नजर आ रहे हैं। हालांकि ऐसे तत्व छोटी मछलियां हैं, जबकि इनके पीछे शातिर दिमाग बड़े मगरमच्छ भी हैं, जिनके ताल्लुकात राजनीतिक नेताओं और ऊंचे अधिकारियों से भी हैं। पूरा मामला दिल्ली में हाल ही संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों की तर्ज पर डील हुआ। 34वें राष्ट्रीय खेलों के बहाने करोड़ों की लूट और बंदरबांट की कहानी सबसे पहले राज्य के प्रधान महालेखाकार की टीम ने साल भर पहले ही शासन को सौंप दी थी, जिस पर धीरे-धीरे मंथन चलता रहा। वह मंथन अंजाम तक पहुंचता, इसके पहले ही निगरानी जांच की सिफारिश हो गई और लगे हाथ आयोजन का समय भी सामने आ गया। यही वह कारण था, जिससे बात दबी-धुआंती रही। अब जबकि घोटालेबाजों पर निगरानी छापों का दौर शुरू हो गया है तो असलियत सामने आने की उम्मीद बंधी है, बशर्ते बिना प्रभावित हुए और बिना किसी का पक्ष लिए जांच आगे बढ़ायी जाय और अंजाम तक पहुंचाया जाय। चूंकि राष्ट्रीय खेलों का आयोजन एक राष्ट्रीय मुद्दा था और झारखंड के लिए स्वर्णिम अवसर भी, इसलिए बीच में निगरानी ने चुप्पी साध अच्छा ही किया। लेकिन जैसा कि इस राज्य में होता रहा है और निगरानी एकदम स्वतंत्र एजेंसी भी नहीं है, यदि दबाव और प्रभाव की राजनीति चली तो जांच लंबी कर दी जा सकती है या अनुसंधान में मेरा आदमी-तेरा आदमी का भी पेंच पैदा हो सकता है। जितने व्यापक पैमाने पर इस आयोजन के नाम घोटाले हुए हैं, वे रुपए जनता की गाढ़ी कमाई के थे, जिसे कुछ लोगों ने घर की मलाई समझ चट कर लिया। आयोजन की भव्यता के कारण जो नेकनामी राज्य को मिली है, जांच के अंजाम तक पहुंचने पर उसमें चार चांद ही लगेंगे क्योंकि तब यह साबित हो सकेगा कि अच्छे को अच्छा कहने और बुरे को बुरा कहने के अलावा दंडित करने में भी झारखंड पीछे नहीं रहता।

Tuesday, March 8, 2011

आरक्षण की मांग

अनुचित तरीका जाट समुदाय के नेताओं की केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण की मांग के पीछे कुछ उपयुक्त आधार हो सकते हैं, लेकिन वे अपनी मांगें मनवाने के लिए जिन उपायों का सहारा ले रहे हैं वे सर्वथा अनुचित और अस्वीकार्य हैं। आरक्षण की मांग के लिए रेल ट्रैक बाधित करने का कहीं कोई औचित्य नहीं। रेल यातायात ठप करना एक तरह से समाज को बंधक बनाना और राष्ट्र को क्षति पहुंचाना है। समस्या यह है कि अब किस्म-किस्म के आंदोलनकारी कहीं अधिक आसानी से रेलों को निशाना बनाने लगे हैं। हाल ही में अलग तेलंगाना राज्य की मांग कर रहे लोगों ने जब अपने आंदोलन को गति दी तो उन्होंने सबसे पहले रेल यातायात को ही बाधित किया। इसी तरह नक्सली जब चाहते हैं तब रेल यातायात ठप कर देते हैं। विडंबना यह है कि जबसे ममता बनर्जी रेलमंत्री बनी हैं तब से रेल प्रशासन नक्सलियों के आगे हथियार डालकर खुद ही रेलों का आवागमन रोक देता है। अब तो उन मांगों को लेकर भी रेल यातायात अवरुद्ध किया जाता है जिनका केंद्र सरकार से कोई लेना-देना नहीं होता। हालांकि उच्चतम न्यायालय हर छोटी-बड़ी बात पर रेल यातायात ठप करने की प्रवृत्ति के खिलाफ गहरी नाराजगी जता चुका है और वह रेल ट्रैक बाधित करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई किए जाने के भी निर्देश दे चुका है, लेकिन न तो राज्य सरकारें अपेक्षित गंभीरता का परिचय दे रही हैं और न ही केंद्र सरकार। हरियाणा में दलितों के उत्पीड़न के एक मामले में पुलिस की कार्रवाई से खफा एक वर्ग विशेष के जिन लोगों ने रेल यातायात को निशाना बनाया था उनके खिलाफ कार्रवाई करने के निर्देश राज्य सरकार को दिए गए थे, लेकिन उसने कार्रवाई के नाम पर लीपापोती ही अधिक की। यदि यह सोचा जा रहा है कि रेल मंत्रालय के इस आश्वासन से आंदोलनकारी रेलों को निशाना बनाना छोड़ देंगे कि जिन राज्यों में रेल यातायात बाधित नहीं किया जाएगा उन्हें नई ट्रेनों और परियोजनाओं का लाभ दिया जाएगा तो यह सही नहीं, क्योंकि रेल अथवा सड़क मार्ग बाधित करने की प्रवृत्ति ने एक राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया है। इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब रेल रोकने की प्रवृत्ति के खिलाफ राज्य सरकारें भी सख्ती का परिचय दें और केंद्र सरकार भी। दुर्भाग्य से फिलहाल ऐसा कुछ होता हुआ नजर नहीं आता। जहां राज्य सरकारें अपनी जिम्मेदारी केंद्र के सिर डालकर पल्ला झाड़ लेती हैं वहीं केंद्र सरकार चेतने से ही इनकार करती है। यही कारण है कि कई बार आंदोलनकारी कई-कई दिनों तक रेल पटरियों पर कब्जा किए रहते हैं। एक बार फिर ऐसा ही देखने को मिल रहा है। केंद्र सरकार न तो जाट नेताओं की आरक्षण संबंधी मांग पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करने की जरूरत समझ रही है और न ही उनके द्वारा जगह-जगह रेल यातायात ठप किए जाने के मामले पर। जाट नेताओं की आरक्षण की मांग के संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वे पिछले तीन वर्षो से आंदोलनरत हैं और कोई नहीं जानता कि केंद्र सरकार उनकी मांगों पर किस दृष्टि से विचार कर रही है? उसके ऐसे रवैये से तो यही लगता है कि वह समस्या को टालने की ही नीति पर चल रही है। वस्तुस्थिति जो भी हो, जाट नेताओं को यह समझना ही होगा कि वे इस तरह से समाज की सहानुभूति-समर्थन अर्जित नहीं कर सकते।

Monday, February 28, 2011

Thursday, February 24, 2011

बहानेबाजी की हद

बहानेबाजी की हद इससे अधिक विचित्र और कुछ नहीं हो सकता कि केंद्रीय गृह मंत्रालय संसद पर हमले के मामले में मौत की सजा पाने वाले आतंकी अफजल की दया याचिका पर कुंडली मारे बैठा रहे और फिर भी गृहमंत्री चिदंबरम संसद में यह सफाई पेश करें कि उनके स्तर पर कोई देर नहीं हो रही है। क्या कोई यह बताएगा कि यदि गृहमंत्री मामले को नहीं लटकाए हैं तो वह कौन है जो इसके लिए उन्हें विवश कर रहा है? अफजल की दया याचिका पर राष्ट्रपति तो तब कोई फैसला लेंगी जब वह उनके सामने जाएगी। अफजल की दया याचिका जिस तरह पहले दिल्ली सरकार ने दबाई और अब गृह मंत्रालय दबाए हुए है उससे तो यह लगता है कि उसे फांसी की सजा से बचाने के लिए अतिरिक्त मेहनत की जा रही है? यह क्षुब्ध करने वाली स्थिति है कि एक ओर संकीर्ण राजनीतिक कारणों से आतंकी को मिली सजा पर अमल करने से जानबूझकर इंकार किया जा रहा है और दूसरी ओर देश को यह उपदेश दिया जा रहा है कि ऐसे मामलों में कोई समय सीमा नहीं? यह कुतर्क तब पेश किया जा रहा है जब उच्चतम न्यायालय की ओर से यह स्पष्ट किया जा चुका है कि सजा में अनावश्यक विलंब नहीं किया जाना चाहिए। आखिर जो सरकार अफजल सरीखे आतंकी को सजा देने में शर्म-संकोच से दबी जा रही है वह किस मुंह से यह कह सकती है कि उसमें अपने बलबूते आतंकवाद से लड़ने का साहस है? अफजल के मामले में केंद्रीय सत्ता जैसी निष्कि्रयता का परिचय दे रही है उससे न केवल इस धारणा पर मुहर लग रही है कि वह एक कमजोर-ढुलमुल सरकार है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी जगहंसाई भी हो रही है। भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभर रहा है जो देशद्रोही तत्वों से निपटने के बजाय तरह-तरह के बहाने बनाने में माहिर है। अफजल के मामले में पहले यह बहाना बनाया जा रहा था कि फांसी की सजा देने से उसे आतंकियों के बीच शहीद जैसा दर्जा मिल जाएगा। अब यह कहा जा रहा है कि ऐसे मामलों के निपटारे की कोई अवधि नहीं। यह लगभग तय है कि हाल-फिलहाल इस बहानेबाजी का अंत नहीं होने जा रहा है। इस पर भी आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए कि जिन नक्सलियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है उनके ही समक्ष उड़ीसा सरकार ने घुटने टेक दिए और केंद्र सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। यह वह स्थिति है जो देश के शत्रुओं का दुस्साहस बढ़ाएगी। अब इसका अंदेशा और बढ़ गया है कि मुंबई हमले के दौरान रंगे हाथ पकड़े गए हत्यारे कसाब को भी सजा देने में देर होगी। हालांकि अभी उसकी फांसी की सजा की पुष्टि उच्चतम न्यायालय से होना शेष है, लेकिन उसका मामला जिस तरह तमाम देरी से हाई कोर्ट तक पहुंचा है उससे यही संकेत मिलता है कि वह कुछ और समय तक जेल की रोटियां तोड़ता रहेगा और उसकी सुरक्षा में करोड़ों रुपये फूंके जाते रहेंगे। कसाब को सजा देने में हो रही देरी को लेकर भारतीय न्यायपालिका की महानता का जो बखान किया जा रहा है उसका कोई औचित्य नहीं। यह शर्मनाक है कि कोई भी इसके लिए तत्पर नजर नहीं आ रहा कि इस खूंखार आतंकी को जल्दी से जल्दी उसके किए की सजा मिले।

Monday, February 21, 2011

खेल गांव में उमड़ रही भीड़

भीड़ नहीं, उत्साह खेल गांव में हर दिन उमड़ रही भीड़ हतोत्साहित झारखंड में नई आशा का संचार है। जब कुछ अच्छा होता है तो उसका परिणाम इसी रूप में आता है। यह उत्साह खेल और खिलाडि़यों से अधिक उन आकर्षक ढांचों को देखने का है, जिनको झारखंड नामक उस राज्य ने तैयार कराया है, जिसकी हर क्षेत्र में नकारात्मक छवि बन चुकी है। इन ढांचों को विश्र्वस्तरीय करार दिया जा चुका है। सबसे बड़ी बात यह कि इन ढांचों को तीन-चार तरह के शासन ने तैयार कराया। इसके बावजूद निर्माण की गुणवत्ता बनी रही। यही विशेषता निर्दिष्ट कर रही है कि झारखंड में बहुत कुछ अच्छा होने की संभावनाएं बाकी हैं। पंचायत चुनाव के तत्काल बाद संपन्न हो रहे 34वें राष्ट्रीय खेलों से ही सही राज्य की दशा-दिशा बदले तो अभी बहुत बिगड़ा नहीं है। याद करें, जिस बिहार को कई मामलों में मानक माना जा रहा है, उसकी पांच वर्ष पहले कैसी स्थिति थी। बिहार और बिहारियों के नाम पर ही लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते थे, आज वही दिल्ली तक को आकर्षित कर रहा है। वह भी तब, जबकि वहां कृषि के अलावा अन्य क्षेत्रों में झारखंड जैसी संभावनाएं नहीं हैं। झारखंड में खान-खनिज, भांति-भांति के वनोत्पादों के अलावा कृषि प्रक्षेत्र में भी संभावनाएं हैं। अकेले पर्यटन क्षेत्र में काम कर दिया जाय तो कश्मीर की तरह स्वर्गोपम प्राकृतिक सुषमा का आनंद इस राज्य में भी मिलने लगे। इसका सीधा असर राज्य के राजस्व के साथ-साथ स्वरोजगार पर पड़ेगा। फिर तो इसकी छवि अपने आप निखरने लगेगी। राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के नाम जब एक छोटा सा काम शासन ने कर दिया तो खेल गांव को देखने के लिए पांच-साढ़े पांच लाख लोग उमड़ पड़े। इस भीड़ की उमंग को तरंगों में बदलने का अवसर शासन-प्रशासन के सामने मुंह बाए खड़ा है। यह भी अच्छा संयोग है कि ऐसे ही अवसर पर राज्य की प्राय: छह माह पुरानी सरकार को अपना बजट पेश करना है। और कुछ न भी हो, केवल वास्तविक बजट तैयार कर उस पर सुविचारित तरीके से काम किया जाय और अपनी 4,430 पंचायतों से पर्याप्त सहयोग लेकर काम किया जाय तो सबसे अधिक परेशान करने वाले मुट्ठी भर नक्सली निश्चय ही या तो मुख्य धारा में शरीक होने को बाध्य हो जाएंगे या फिर काबू में आ जाएंगे। खेल गांव में उमड़ रही भीड़ के उत्साह का यही संदेश है, यह बात शासन-प्रशासन भी तो समझता ही होगा।

Tuesday, January 25, 2011

पंडित भीमसेन जोशी का गायन प्रभावशाली था

स्मरण भीमसेन जोशी पंडित भीमसेन जोशी का गायन जितना प्रभावशाली था उनका संगीत साधना का सफर भी उतना ही दिलचस्प रहा। उनका जन्म 4 फरवरी 1922 को कर्नाटक के धारवाड़ जिले में गडग में में हुआ। उनके पिता गुरुराज जोशी अध्यापक थे। भीमसेन का बचपन से ही रुझान गीत-संगीत की ओर था। उन्होंने एक बार उस्ताद अब्दुल करीम खान की ठुमरी पिया बिन नहीं आवत चैन.. सुनी। इसने उनके अंतर्मन पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि उन्होंने जीवन संगीत को समर्पित करने की ठान ली और किसी गुरु की तलाश में 11 वर्ष की आयु में घर से भाग गए। वह संगीत सीखने के लिए किसी अच्छे गुरु की तलाश में दिल्ली, कोलकाता, ग्वालियर, लखनऊ, रामपुर सहित कई स्थानों पर भटके। उनके पिता उनकी तलाश में भटक रहे थे। आखिरकार उन्होंने उन्हें जालंधर में ढूंढ़ निकाला और वापस घर ले गए। पंडित सवाई गंधर्व ने 1936 में पंडित जोशी को शिष्य बना लिया और वहीं से उनकी विधिवत संगीत साधना आरंभ हुई। सवाई गंधर्व के गुरु उस्ताद अब्दुल करीम खान थे, जिन्होंने अपने भाई अब्दुल वहीद खान के साथ मिलकर संगीत के किराना घराने की स्थापना की थी। गुरु गंधर्व की छत्रछाया में पंडित जोशी ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की विभिन्न विधाओं ख्याल, ठुमरी, भजन और अभंग की गायकी में महारत हासिल की। दरबारी, शुद्ध कल्याण, मियां की तोड़ी, मुल्तानी आदि उनके पसंदीदा राग थे। 22 वर्ष में उनका पहला संगीत संग्रह एचएमवी ने जारी किया। उन्होंने कन्नड़, हिंदी और मराठी भाषा में भजन भी गाए। पं. जोशी को 1972 में पद्मश्री, 1976 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1985 में पद्मभूषण, 1985 में सर्वश्रेष्ठ पा‌र्श्व गायन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, 1999 में पद्म विभूषण, 2005 में कर्नाटक रत्न और 2008 में भारत रत्न सम्मान मिला। उन्होंने बीरबल, माई ब्रदर, तानसेन और अनकही आदि फिल्मों में पा‌र्श्वगायन किया। पंडित जोशी के दो विवाह हुए। उनके छह बच्चे हैं। उनके एक पुत्र श्रीनिवास जोशी उनकी परंपरा आगे बढ़ा रहे हैं।